Wednesday, October 15, 2008

वो तीन बदनसीब

जब हवा चलती है तो हमारे देश की रेत राजस्थान के रास्ते दूसरे देश की सीमा में समा जाती है। इसी तरह ही कुछ सिरफिरे नौजवान सेना के जवानों को चकमा देकर एक देश की सीमा से दूसरे देश की सीमा में शामिल हो जाते हैं। पुलिस, सरकारें और सेना के जवानों की आंख में धूल झौंककर कुछ जुनूनी क़ातिल हैं जो सरहद पार से आते हैं और अपने दुश्मन का सर काटकर अपने साथ ले जाते हैं और छोड़ जाते हैं तो सिर्फ तड़पता हुआ अपने दुश्मन का धड़।
तीन बदनसीब इंसान जिनका जिक्र राजस्थान में आज भी किया जाता है। ठीक उस रेगिस्तानी डाकू कर्ना भील की तरह जिसको रॉबिन हुड की पदवी और उसकी मूंछ के कारण तो याद किया ही जाता है पर सबसे ज्यादा याद किया जाता है उसकी कब्र को जो कि एक शमशान में १७ साल से इंतजार कर रही है चिता का। ठीक कर्ना भील की तरह ही दुश्मन इन तीन बदनसीबों का सर काटकर, अपने साथ सरहद पार लेगए थे और दे गए थे जख्म, इंतजार का, उस परिवार को अपनी दुश्मनी याद रखने का और जिंदगी पर तड़पने का।
राजस्थान के पश्चिमी जैसलमेर के बीदा गांव में कुछ ऐसा ही वाक्या हुआ। दो नौजवान खेमर सिंह, खुमान सिंह गांव से अपने साथ कुछ भेड़ों को लेकर सरहद पर चराने के लिए गए थे। साथ ही उनके था १२ साल का जुगत सिंह। अमूमन तो ये लोग दो तीन दिन बाद ही सरहद से भेड चरा कर लौटते थे। जब इस बार चार-पांच दिन बाद भी ये नहीं लौटे तो गांव वाले पुलिस के साथ उनको ढूंढते हुए सरहप पर पहुंचे। काफी ढूंढने के बाद तीन शव मिले लेकिन तीनों के सर गायब थे। कपड़े और कद काठी से पता चल गया कि ये खेमर, खुमान और जगत की लाशें हैं।
तफ्तीश से पता चला कि इस परिवार की पुरानी रंजिश पाकिस्तान के कुछ लोगों से थी। मौका पाकर उन्होंने पाकिस्तान से आकर इन तीनों का सर कलम कर दिया और साथ ही सर भी अपने साथ लेगए। एक ही परिवार के तीन लोगों के धड़ जैसलमेर से सटी भारत की सीमा पर पड़े मिले। उनके दुश्मन उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए थे। पहले सरहदों पर तार यानी सीमा पर कटीले तार नहीं हुआ करते थे, तो ये लोग सरहद पार आसानी से चले जाया करते थे। ऊंटों में सवार ये अपराधी जैसे आए थे वैसे ही वापस चले गए और पीछे छोड़ गए सिर्फ दो शब्द “चांद मुजरा”
बीदा गांव के लोगों ने आधे-अधूरे शरीर को चिता पर लिटा तो दिया पर रस्मों के हिसाब से वो उस चिता में अग्नि नहीं दे सकते थे। मुख ना होने के कारण मुखाग्नि कोई कैसे देता। तो गांव वालों ने तीन पुतलों के सर रखकर अपने आप को बहला लिया। लेकिन ये टीस उनको सालने लगी।
गांव वालों के गुस्से को देखते हुए पुलिस ने क़ातिलों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की मगर सरहद पार से कातिल को पकड़ कर लाना दो थानों की बात नहीं थी, ये दो मुल्कों की बात थी। सो ना क़ातिल पकड़ा जाना था और ना ही क़ातिल पकड़ा गया। मालूम नहीं इन सरहदों के बीच ये सर और सरहद का रिश्ता क्यों है।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, October 2, 2008

"17 साल से शमशान में एक कब्र, इंतजार चिता का"

दुश्मनी, सर और सरहद भाग-2
अब तक कर्ना भील 70 के दशक में रेगिस्तान का सबसे ख़तरनाक लुटेरा सरकार की कोशिशों के चलते उसने सरेंडर कर दिया। बदले में सरकार ने कर्ना को जैसलमेर में ही एक जमीन का टुकड़ा रहने के लिए दिया। लेकिन एक दिन जमीन के झगड़े में इल्यास नाम के एक पड़ोसी का क़त्ल हो गया। क़त्ल के बाद कर्ना को पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया। पर इल्यास का परिवार तो खून के बदले खून की मांग कर रहा था। वो उसको जेल भेजे जाने से ही खुश नहीं थे। वो कर्ना से एक भयानक बदला लेना चाहते थे। इस बदले के लिए इल्यास के परिवार वालों ने बकायदा एक कसम भी खाई। कसम भी कोई ऐसी-वैसी नहीं। खून के बदले खून की क़सम। कर्ना का सर काटकर पाकिस्तान की एक दरगाह पर चढ़ाने की कसम। हत्यारों ने लगभग 17 साल तक का इंतजार किया और फिर जिस रोज उन हत्यारों को मौका मिला उन्होंने अपनी कसम को पूरा करने की ठान ली।
अच्छे चाल चलन के कारण पैरुल पर कर्ना को छोड़ दिया गया। एक रोज कर्ना राम अपनी ऊंट गाड़ी पर चारा लेने बाजार जा रहा था। रास्ते में घात लगाए इल्यास के रिश्तेदारों ने कर्ना राम से लिफ्ट मांगी, कर्ना राम उन्हें नहीं पहचानता था, लिहाजा उसने गाड़ी में उन्हें बिठा लिया। इसके बाद रास्ते में मौका मिलते ही उन्होंने कर्ना का सर धड़ से अलग कर दिया। सर हाथों में लिए रेगिस्तान के रास्ते वे पाकिस्तान भाग गए। वो दिन है और आज का दिन कर्ना राम का सर कभी नहीं मिला। हालांकि ये खबर जरूर आई कि कातिलों ने उसका सर लाहौर में एक दरगाह पर चढ़ा दिया। चाहे कुछ हो पर सरकार ने कर्ना के सर पर बाकायदा इनाम भी रखा हुआ था लेकिन उसी सर का इंतजार पिछले 17 साल से आज भी जैसलमेर के शमशान में पड़ा उसका शरीर कर रहा है और उसका सर पिछले 17 सालों से सरहद पार पाकिस्तान में किसी की कसम पूरी कर रहा है।
यहां कर्ना राम का परिवार पुलिस और प्रशासन से कर्ना भील के सर को वापस लाने की मांग कर रहा है। जबकि वहीं सर लाने की बात तो दूर पुलिस तो क़ातिल तक का सुराग नहीं लगा पाई है। 17 साल का समय बहुत होता है परिवार खुद लाहौर जा कर वो सर वापस लाना चाहता है इसलिए उसने प्रशासन से पाकिस्तान जाने की इज्जात मांगी है। 17 साल का अर्सा बेहद लंबा होता है। अगर अब कातिल का पता भी चल जाए तो भी कर्ना के परिवार वालों को उनके मुखिया का सर मिलना मुश्किल है। अब सवाल जो उठता है कि कब तक वो शमशान अपने में एक कब्र को बनाए रखेगा? तो क्या कर्ना हमेशा इसी तरह शमशान में चिता के बेहद करीब होते हुए भी चिता से दूर कब्र में लेटा रहेगा? इनके जवाब अभी अधूरे और बाकी हैं।

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, September 30, 2008

दुश्मनी, सर और सरहद भाग-१

लोग दोस्ती दिल से करते हैं, ये तो आप ने कई बार सुना होगा और साथ ही देखा भी होगा। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दुश्मनी भी दिल से करते हैं। कुछ की दुश्मनी जुबान से नहीं काम से होती है। और जब वो दुश्मनी निभाने पर आते हैं तो सरहदें भी उनको रोक नहीं पाती हैं। तो आज बात उसी अनोखी दास्तान की जिसकी चिंगारी उठी तो हिंदुस्तान से पर खत्म हुई पाकिस्तान में पर लौ अभी तक जल रही हैं अपने अंजाम तक पहुंचने के लिए।
बात उस डाकू कि वो जब ज़िंदा था तब भी मशहूर था लेकिन मरने के बाद उसकी दास्तान उसकी जिंदगी से ज्यादा मशहूर हुई। उसकी मौत उसकी जिंदगी पर भारी होगई। हिंदुस्तान का वो डाकू जिसने थार की रेतीली ज़मीन पर 70 के दशक में ख़ौफ़ की इबारत लिखी, आज भी इस इलाके का बच्चा-बच्चा उस डाकू को जानता है। उस डाकू का नाम कर्नाराम भील है। कर्ना भील का नाम जुबान पर आजाने से ही राजस्थान की रेगिस्तान की उड़ती रेत अपना रुख बदल लेती थी।
डाकू कर्ना जब तक ज़िंदा रहा तब तक उसको हाथ लगाने वाला भी कोई नहीं था और मरने के बाद भी उसके शरीर को कोईं हाथ नहीं लगा पा रहा है। कर्ना का नसीब तो देखिए आज भी उसका बेजान शरीर अंतिम संस्कार की राह तक रहा है। उस की चिता को अग्नि देने वाला कोई नहीं ऐसा भी नहीं है। भरा पूरा परिवार है उसका, लेकिन वो मुखाग्नि दें किसको क्योंकि दुश्मन उसका सर काट कर अपने साथ सरहद पार ले गए हैं।
पिछले 17 सालों से अपने अंतिम संस्कार की राह तक रहा है डाकू कर्ना का शरीर। वो कोई कब्रिस्तान नहीं, शायद वो इक्लौता शमशान होगा जहां पर कब्र है और कोई मुर्दा, चार दीवारी में कैद, अंतिम संस्कार की राह तक रहा है। सितम तो देखिए कि वो चिता के इतने करीब होते हुए भी चिता से उतनी ही दूर है।
डाकू कर्ना राम भील, जिसको हिंदुस्तान का रॉबिनहुड भी कहा जाता है। कर्ना की कहानी भी कुछ रॉबिनहुड की तरह, जो मरने के बाद मशहूर हुआ ना कि जिंदा रहते हुए। जो भी जैसलमेर से गुजरता उस पर क़हर बनकर डाकू कर्ना और उनके साथी टूट पड़ते ख़ास कर अमीरों पर। कहते हैं कि अमीरों को लूटकर वो गरीबों में बांट दिया करता था इसलिए कुछ उसे रॉबिन हुड कहा करते थे। कर्ना भील अपनी लंबी मूछों की वजह से गिनीज बुक ऑफ रिकॉडर्स तक में अपना नाम दर्ज करवा चुका था। नट बाजा पर दिलकश संगीत बिखेरना भी उसकी शख्सियत में सुमार था।

जारी है....

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, September 26, 2008

कुर्बानी, 84 गांव और एक लड़की-भाग 2

अभी तक आप ने पढ़ा--
सालम सिंह की नजर इस कुलधरा गांव की एक सुंदर लड़की पर जा पड़ी। 50 साल के सालम सिंह को वो पसंद आ चुकी थी वो इतना उतावला हुआ कि सब भूल गया, बस वो हासिल करना चाहता था कुलधरा गांव की उस इज्जत को। किसी भी तरह से उस चाहिए तो वो सुंदरी अपने हरम में।
सालम सिंह ने अपना संदेशा उस परिवार तक पहुंचा दिया जिस घर की वो सुंदरी थी। सालम सिंह ने बस्ती के लोगों को पूर्णमासी की रात तक फैसला करने की मोहलत दी। इसी मोहलत के साथ साथ सालम सिंह की धमकी भी थी कि पूर्णमासी की अगली सुबह बस्ती पर धावा बोलकर लड़की को उठा के ले जाएगा। गांव वालों ने मोहलत पर कम और धमकी पर ज्यादा गौर किया। ये सब वो ब्राह्मण गांव के लोग सहन नहीं कर सके। सभी 84 गांवों ने मिलकर एक जगह पर बैठक की। एक ब्राह्मण की बेटी को उस अधेड़ दीवान के सुपुर्द करना उनकी गैरत के खिलाफ था। सभी 84 के 84 गांव के लोग कुलधरा में मंदिर के पास इक्टठा हो गए। ब्राह्मणों की पंचायत हुई, पंचायत में एक आवाज पर फैसला होगया। 84 गांव के हजारों लोगों की एक ही आवाज़। कुछ भी हो जाए अपनी बेटी को उस अधेड़ के सुपुर्द नहीं करेंगे। चाहे उसकी कितनी बड़ी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े।
फैसला हो चुका था। ब्राह्मण की लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए 84 के 84 गांव फौरन सुबह का इंतजार किए बगैर ही जैसलमेर की रियासत से कहीं दूर निकल जाएंगे। एक ही रात में भरा पूरा गांव खाली हो गया। पर वो अपना धर्म नहीं बेचेंगे, वो अपनी लड़की की इज्ज़त को नहीं बिकने देंगे। 84 के 84 गांव के लोग एक ही रात में जैसलमेर जिला छोड़कर कहीं दूर चले गए। मगर जाते जाते ये बस्ती वाले इन गांवों को ये श्राप भी दे गए कि दोबारा कभी इन घरों में कोई बस नहीं पाएगा। जो गए वो कभी यहां पर लौट कर नहीं आए।
वक्त गुजरने के साथ कुछ लोगों ने और सरकार की तरफ से भी इन उजड़ी बस्तियों को बसाने की कोशिश की गई मगर तमाम कोशिशें नाकामयाब ही रहीं, ये गांव कभी आबाद नहीं हो पाए। उनका दिया श्राप आज भी इन गांवों को बसने नहीं देता। जो भी यहां बसने के लिए गया पूरे के पूरे परिवार पर आफत ही टूट पड़ी। ऐसी विपत्ति आती की किसी की जान लेकर ही जाती। घर का कोई ना कोई मरता जरूर।
सरकार की ये कोशिश तो असफल रही पर सरकार ने दूसरी कोशिश जरूर शुरू कर दी है। इन तमाम गांवों की घेराबंदी कर दी गई है। सदर दरवाजे पर चौकीदार को बैठा दिया गया है। गांव तो ना आबाद हुआ और ना ही कभी आबाद होगा पर उजड़ने के बाद भी ये गांव पर्यटकों की जेबों से पैसे निकालकर सरकार की झोली जरूर भर रहा है। घर की बहू-बेटी की इज्ज़त की खातिर जो मिसाल इन पत्थरों में रहने वाले गांव वालों ने दी है उस की मिसाल कभी दूसरी मिल ही नहीं सकती। वो पत्थर जो बिखरा तो है पर टूटा अब भी नहीं।

आपका अपना
नीतीश राज

(अगली बार एक और ऐसी ही रोचक और सच्ची कहानी के साथ, पढ़ना जरूरी है)

Wednesday, September 24, 2008

कुर्बानी, 84 गांव और एक लड़की-भाग 1

मिसालें तो मिलती हैं और बहुत मिलती है, कुछ मिसालें याद की जाती है क्योंकि वो अनोखी होती हैं। दिल और दिमाग खोलकर पढ़िए ये मिसाल सिर्फ एक शख्स की नहीं, एक घर नहीं, एक कुनबा नहीं, चंद परिवार नहीं, एक गांव नहीं, पूरे 84 गावों के हजारों लोगों की मिसाल है।
माना जाता है लड़की की इज्ज़त वो पाक चीज होती है जिसकी कीमत ना तो बनाने वाले ने तय की ना ही खुद जिसकी वो है और खरीदने वाले की औकात ही नहीं जो ये तय कर सके। एक तरफ लड़की की इज्ज़त और दूसरी तरफ 84 गांव के हज़ारों लोग। गांव वालों के पास सिर्फ एक रात की मोहलत थी या तो वो लड़की की इज्ज़त का सौदा कर लें या फिर उस सज़ा के लिए तैयार हो जाएं जिसके क़हर से खुद सज़ा तक कांपती थी। रात गुजरी और सुबह से पहले ही 84 गांव हजारों लोगों ने जो फैसला किया उस कुर्बानी की मिसाल दुनिया में कोई दूसरी नहीं मिल सकती।
बस्ती जो कि पत्थर की बस्ती बनी, वहां आज सन्नाटा पसरा हुआ है पर बरसों पहले यहां पर जिंदगी बसा करती थी। वो जिंदगी क्या उजड़ी अब तो परिंदों की परवाज भी थम कर रह गई। बस्ती पर हावी है तो खामोशी जिसमें घुलने के बाद आवाज़ भी पुरजा पुरजा हो जाती है। वो जगह ना तो शमशान है ना ही कब्रिस्तान, पर वहां दफन हैं 84 गांव, जहां पर एक ही रात में भरी पूरी बस्ती पत्थर की बस्ती में तब्दील हो गई(बार-बार पत्थर की बस्ती लिखने का अभिप्राय ये है कि वहां पर सिर्फ और सिर्फ पत्थर यानी कि मकान रह गए हैं)।
जैसलमेर से 50 किलोमीटर की दूरी पर पत्थरों से बनी कुल 84 बस्तियां थी या यूं कह लें कि 84 गांव थे। ब्राह्मणों के एक गांव का नाम था पालिवाल। करीब 150 साल तक पूरी तरह आबाद और गुलजार रहे इस गांव को जैसलमेर के दीवान सालम सिंह की नज़र लग गई। सालम सिंह के बारे में कहा जाता है कि वो जैसलमेर का बेताज बादशाह था जबकि था वो सिर्फ एक दीवान। जहां से भी वो निकलता औरतें दरवाजों के अंदर ही अपने को महफूज समझती। जिस गली की तरफ उसके घोड़े का रुख होता वो गली पल भर में कई घंटों के लिए वीरान हो जाती। सालम सिंह की अय्याशियों की कई कहानियां प्रसिद्ध थीं। वो जिस को भी एक बार पसंद कर लेता, उसे अपने हरम में चाहता।

जारी है.....

आपका अपना
नीतीश राज
(सच्ची कहानी पर आधारित)

Sunday, September 21, 2008

अपना एक अड्डा- अंतिम भाग

शायद किसी ने मेरे इस अड्डे के बारे में पुलिस को बता और पढ़ा दिया। पुलिस ने इस बार कुछ ज्यादा ही सख्ती दिखाते हुए यहां की जगह को खाली करा दिया। अब वहां पर ना तो कोई ढाबा, ना ही कहीं कोई ऑम्लेट वाला। मेरा जाना नहीं हो पाया काफी टाइम से पर आज मेरे मित्र ने फोन पर बताया। पर हां, खाना ना मिले, अंडे ना मिलें, नॉन वेज ना मिले पर पीने का सामान यहां अब भी पुलिस की नाक के नीचे मिलता है। बशर्ते की आप सामान लें और तुरंत यहां से बिना शोर मचाए निकल लें। अब यहां पर रातों में जाम नहीं छलकते पर छलकाने का इंतजाम अब भी बरकरार है। चलिए, आज बात करते हैं जब यहां पर जाम छलकते थे और लोगों के कदम बहकते थे।
“जहां चार यार मिल जाएं वहीं रात हो गुलजार जहां चार यार....” आनंद विहार के इस अड्डे पर रात घिरते ही यार पहुचंने लगते हैं। फिर तो सिलसिला शुरू होता बैठने का, पीने का, पिलाने का और बातें उड़ाने का। यहां पर जब भी आप आएंगे तो दो-चार लड़के भाग कर आप के पास मेन्यू लेकर पहुंच जाएंगे। ‘कौन सी चाहिए?’ कन्फूयज ना हों और इसका मतलब भी अन्यथा ना लें। ये पूछते हैं कि व्हिस्की, रम, बियर आदि क्या चाहिए।
मेरे ही सामने दो लड़के एक ही बैंच पर दोनों तरफ पैर करके आमने-सामने बैठे हुए हैं। साथ में पीने के लिए जो-जो सामान चाहिए वो सब बीच में रखा हुआ। एक कह रहा है कि, देख, तूने गलत किया, तेरे को ऐसे नहीं कहना चाहिए था। दूसरा, क्यों में हाथ का इशारा करता है। शायद ज्यादा हो जाने की वजह से ये क्यों जैसा फिसलू शब्द उसकी जुबान से फिसल रहा है। बॉस ने जो कह दिया वो सराखों पर, पता नहीं तेरे को क्या हुआ जो कर बैठा बहस। आज तो मैं पिला रहा हूं पर कल तू कहां से पिएगा। मतलब समझने में देर नहीं लगी कि पहले वाले की नौकरी जा चुकी है। गम गलत करने के लिए बेचारा जाम पे जाम लगाए जा रहा है। वैसे भी यदि इनक्रिमेंट हो गया होता तब खुशी में पीता और कुछ घटित नहीं होता तो इस गम में कि कुछ हुआ क्यों नहीं। पहले वाला दूसरे के कंधे पर सर रखकर रोने लगा और फिर दूसरे वाला उसे उठाकर के ले गया और कोने में उसको बैठा दिया। ज्यादा पीने की वजह से पहले वाले का हाल बेहाल होचुका था। मतलब समझ गए होंगे।
एक दिन तीन-चार लड़के पीने में लगे रहे फिर जब पैसे मांगे गए तो एक-दूसरे पर टालमटोल करने लगे। दुकानदार कभी किसी के पीछ भागे कभी किसी के। कुछ पहले के उधारी भी थे। मैं वहीं खाना खा रहा था, अपने ऑफिस के दो सहयोगियों के साथ । दुकानदार ने सब को अपने पास बुलाया और पैसे मांगे। उनमें से एक जिसको की पैसे देने थे वो तेज तेज चिलाकर बदतमीजी करने लगा। थोड़ी देर में ५-६ दुकानदार आए और उससे पैसे मांगे पर वो उनसे भी उलझ गया।मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी पिटाई नहीं देखी। एक अकेला लड़का और ८-१० दुकान के लड़के उस पर लात-घूंसों से दे दनादन। उसके जितने साथ में पीने वाले थे कोई भी आगे नहीं आया वो पिटता रहा। जब हमने बीच बचाव किया तब वो छूटा। और फिर उस दुकानदार के पास अपनी घड़ी-मोबाइल कस्टडी में रखकर, माफी मांग कर चला गया। मैंने सोचा कि यदि ये ही करना था तो पहले ही कर दिया होता। पिटाई हुई और इज्जत गई सो अलग।
वैसे तो, ऐसे बहुत से किस्से हैं यदि कहुं तो अगली पोस्ट के बाद तक भी सिलसिला चला जाएगा। तो इसलिए यहीं खत्म करते हैं, पर...हां, एक किस्सा और सुनाते हुए खत्म करूंगा।
दो बंदे खूब पी चुके थे। पीने के बाद खाने का ऑर्डर किया उन्होंने बड़ी मुश्किल से, और उतनी ही मुश्किल से वो बैंच पर बैठ पाए। हम लोग निकलने वाले थे लेकिन मैंने सब को रोक लिया। मुझे यहां पर एक किस्सा दिख रहा था। दोनों ऐसे बैठे थे कि हवा का एक झौंका उनको गिराने के लिए काफी था। खाना सामने लग गया तो थोड़ी दिक्कत के बाद रोटी तो तोड़ ली। हाथ लगातार हिल रहे थे। सब्जी लगाने के लिए दूसरे हाथ से पहले हाथ को पकड़ रहे थे। कैसे-कैसे करके तो सब्जी लगाई पर अब हाथ मुंह में जाने की बजाय दाएं-बाएं से निकल रहा था। बार-बार वो कोशिश करें और उतनी ही तेजी से कोशिश नाकाम हो रही थी। हम ये देख-देख कर पेट पकड़कर हंस रहे थे। उनके लिए तो ये एक जंग जैसा ही था पर हमने फिल्मों के अलावा ये सीन पहले कहीं नहीं देखा। हम हंसते हंसते वहां से निकल लिए। नहीं जानता कि वो खाना खा पाए भी या नहीं।
सच में पीने वालों की तो बात ही निराली होती है। कई शायरों,कवि को तो ये प्याला क्या से क्या बना गया पर कुछ के लिए तो ये.....महज एक प्याला ही रहा। हां, आनंद विहार का ये अड्डा याद तो बहुत ही रहेगा पर देखना अब ये है कि उनकी ये अमावस्या (बंद वाली बात) कब खत्म होती है।

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, September 3, 2008

अपना एक अड्डा-भाग २

आनंद विहार के इस अड्डे पर जैसे ही आप एंट्री करेंगे तो चार-छह लड़के तुरंत दौड़ते हुए आप के पास आजाएंगे। उनकी लिस्ट सुनेंगे तो हैरान रहे बिना नहीं रह सकेंगे, इतनी रात में भी इतना कुछ। सर, बताइए तो क्या लेना पसंद करेंगे। आप सोचेंगे कि गाड़ी आगे लगा लें कही पुलिस ने पकड़ लिया तो रात काली होने में देर नहीं लगेगी, फिर देते रहो पैसे। आप सोचेंगे कि इन लोगों की सैटिंग होगी इन पुलिसवालों से ये तो बच जाएंगे और आप फंस जाएंगे। हां, ये सच भी है कि इनकी सैटिंग होती है पुलिसवालों से, और इनका मानना है कि पुलिस हफ्ता लेती है तो वो इनके ग्राहकों को तंग भी नहीं करेगी। पर हरबार ऐसा होता नहीं है।
सबसे पहले होगी आप को अपनी तरफ खींचने की होड़। पर यहां अधिकतर वो लोग आते हैं जिनको पता रहता है कि किस जगह पर क्या और कैसा मिलता है। रेट में ये हमेशा ही गच्चा देते रहते हैं, ऐसे ही जैसे कि सरोजनी नगर आप जाएं तो मार्केट वाले। पर खास ये कि इस होड़ में कभी भी इन लोगों के बीच में लड़ाई मैंने तो नहीं देखी और ना ही सुनी है।
कई बार ज्यादा पीने के बाद यहां पर नौटंकी देखने वाली होती है। यहां बैठकर सिर्फ कान-आंख खुली रखिए। फिर देखिए क्या-क्या नजारे देखने को मिलते हैं। एक से बढ़कर एक फेंकूं तो पीने के बाद ही होते हैं। इस की बात फिर कभी।

हां, ऐसी जगहों पर पुलिस हमेशा आस-पास रहती ही हैं। एक तो गैरकानूनी, यदि कुछ लफ्ड़ा होगया तो फंसेंगे पुलिसवाले भी। पुलिसवाले कानून की आड़ में ही कानून का मजाक उड़ाते हैं। यहां देर रात में जब कोई भी गुट या फिर व्यक्ति विशेष ज्यादा आउट होने लगता है तो इन दुकानदारों के गठजोड़ के अलावा यहां की पुलिस का डर हमेशा लोगों के दिमाग में रहता है। ज्यादा पी लेने के बाद कई बार बदतमीजी होती हैं, ऐसी जगहों पर। तो उनकी सेवा भाव के लिए, पुलिस है ना, सदैव तत्पर-आपकी सेवा में उपलब्ध। कई बार तो लगता है कि पुलिस इनके लिए है हमारे लिए नहीं।
मैंने यहां ये भी देखा है कि कभी कोई पुलिस की गाड़ी आएगी और तुरंत यहां कि लाइटें बंद कर दी जाती है। लोग यहां-वहां हो जाते हैं। जो दिखता है उस पर पुलिस डंडे छोड़ देती है चाहे वो यात्री ही हो और बेचारा सिर्फ सुफियाने अंदाज में खाना ही क्यों ना खा रहा हो।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। ये तकरीबन तीन साल पहले की घटना होगी। एक रोज ऑफिस से निकलते हुए देर होगई तो सोचा कि चलो खाना खाकर फिर घर का रुख करेंगे। रात के एक बजे के बाद का वक्त रहा होगा। जे. पी. जो कि अलीगढ़ का रहने वाला है यहां पर अपना स्टॉल लगाता है। जब भी खाना होता है तो, मैं यहां ही खाता हूं। जेपी तेल कम डालता है साथ ही थोड़ा साफ सफाई भी है और खाना बनाता भी दिल से है और उसके खाने में थोड़ा स्वाद भी है। मेरा खाना लगभग खत्म होने वाला था। तभी वहां पर पुलिस आगई। पुलिस अपने पुराने राग को अंजाम देने लगी, बरसाने लगी डंडे। मेरे बगल में बैठा था एक व्यक्ति जो कि एटा से आया था, जाना था मालवीय नगर। (ये घटना के बाद पता चला था) बस से उतरा सोचा कि पहले खाना खा ले फिर ऑटो करके घर चला जाएगा। वो खाना खा रहा था, उस की बैल्ट के नीचे डंडा लगा वो एकदम से कराह गया। उसका हाथ जहां का तहां रुक गया और मुंह का कौर मुंह से बाहर निकल आया। जितनों ने देखा सब का दिल धक्क से रह गया। मुझे तो लगा कि शायद ये प्रहार कहीं इस शख्स के प्राण ही ना ले उड़े। मैं बगल में था पुलिस वाले का हाथ फिर उठा और इस बार बारी मेरी थी। पर तभी जेपी ने आवाज़ लगाई और मैं भी उसी वक्त खाना छोड़ खड़ा हो चुका था। हवालदार ने डंडा घुमाया तो पर वो लगा बैंच पर। मेरी जान में जान आई। तब तक वो शख्स संभल गया था, वो उठा और उसने आव देखा ना ताव उस पुलिसवाले की पीठ पर एक घूंसा मार दिया। हम सब अवाक थे। दोनों एक दूसरे पर पिल पड़े। पुलिस की वर्दी का रौब तो होता ही है पर वो लड़का तो छोड़ने के मूड में था ही नहीं। रोता जा रहा था और मारता जा रहा था। पुलिसवाला भी मार रहा था पर कम। हम बीच बचाव करने लगे। तब जाकर मामला शांत हुआ। लेकिन पुलिसवाले पर हाथ उठाना तो अपराध है। पुलिस की वर्दी पहनकर दलाली करना भी तो गुनाह है, अपराध है। उस हवलदार के साथ आए ऑफिसर ने जेल में बंद करने की धमकी दी। मैंने उस ऑफिसर से एक बात पूछी कि यदि यहां खाना-पीना मना है तो ये बंद क्यों नहीं होते? उसने मेरा परिचय पूछा, मैंने बताया तो उस ने सब को इशारे से जाने के लिए कह दिया। फिर मेरे से मुखातिब होकर कहने लगा कि आप यहां क्यों आते हो, जब सूफी हो तो कहीं और भी तो खाना खाया जा सकता है। मैंने कहा कि घर के रास्ते में था इसलिए रुक गया पर उसका इशारा समझ वहां से रुखसत हो लिया।
अगली बार जाने पर पता चला कि उस रात वो एटा वाला आदमी तभी चला गया था। पुलिस ने यहां पर तो कुछ नहीं कहा था, आगे कोई नहीं जानता। पूरे समय पुलिस मौजूद रही और रात भर के लिए सभी ढाबे और स्टॉल बंद करवा दिए गए। जो हवलदार पिटा था वो उसी जगह पर बैठकर दारू पी रहा था, जहां पर उसने उस आदमी को मारा था और सारी रात बड़बड़ाता रहा।

जारी है...
(अगली बार ज्यादा पीने के बाद नौटंकी करने वालों पर)

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, August 29, 2008

अपना एक अड्डा

जब से दिल्ली आया तब से ही रात के समय में कुछ अड्डों के बारे में सुना। जब चाहो, जितना चाहो, जो चाहो मिल जाता है। नाइट शिफ्ट लगने लगी तो ख्याल इन अड्डों का आया और फिर ये अड्डे ध्यान में रखने पड़ते। कभी शाम को काम से फुरश्त नहीं मिलने पर, भूखे पेट को देर रात में इनहीं का सहारा रहता। आईआईटी गेट पहले बहुत जाना हुआ करता था। कभी आश्रम फ्लाईओवर, HYATT होटल, निजामुद्दीन, जामा मस्जिद, पंडारा रोड और भी कई जगहें। पर जब से नोएडा कर्मभूमि हुई तब से दूरी की वजह से वहां जाना नहीं हुआ करता था। फिर इधर ऐसे ही किसी अड्डे को ढूंढने का सिलसिला शुरू हुआ।
यहां पर आनंद विहार बस अड्डे के ठीक सामने वो अड्डा या यूं कहूं कि ठिया मिल गया जो कि हमारे हिसाब से बिल्कुल सही था। लेकिन ये दिल्ली में नहीं है क्योंकि रोड के उस पार बस अड्डा है और रोड के इस पार यानी गाजियाबाद, यूपी में ये ठिया है। यहां पर कुल मिलाकर १२-१५ दुकानें होंगी और सारी रात खुली रहती हैं। यहां पर खाने-पीने के मामले में सब कुछ मिलता है, देर रात तक नहीं सुबह तक। जब भी रात में कुछ भी खाने की इच्छा होती तो बाइक का रुख यहां की तरफ कर देते। आठ साल से तो मैं देख रहा हूं, उसके पहले का मुझे पता नहीं, पर ये जगह वैसी की वैसी ही है। ऐसा नहीं कि ये कनॉट प्लेस की तरह है पर रात में जब जाम छलकाने का मन होता है तो सब से ज्यादा भीड़ शायद यहीं पर लगती है। और ये जगह रात में तो सिर्फ पीने के लिए ही जानी जाती है।
देर रात खाने-पीने के अलावा ये जगह रात में इतनी गुलजार इस लिए भी रहती है क्योंकि दोनों तरफ मॉल बने हुए हैं। रात भर बसों का आना-जाना लगा रहता है। साथ ही पीने वालों की तो बात ही निराली। लेकिन यहां का एंबियंस काफी अच्छा है, सिर्फ पुरुषों के लिए। ओपन एयर रेस्त्ररां जैसा माहौल, वहां बैठ कर डिनर कीजिए, गैस की जो लालटेन और साथ ही सिलेंडर के जरिए रोशनी होती है। वैसे कई जगहों पर बल्ब भी हैं। किसी ना किसी ऑटो में गाने बजते रहेंगे। यदि उसमें नहीं बज रहे तो फिर किसी गाड़ी से सुनाई पड़ जाएंगे। बैचलर्स और पार्टी टाइम के लिए तो बिल्कुल सही जगह।
ऐसा नहीं कि गाजियाबाद में ये सब जायज है पर जब थानेदार को हफ्ता मिलता रहता है तब तक पूरी रात दुनिया के सामने यहां जाम से जाम टकराए जाते हैं। जब कि इसके बगल में है कौशांबी। गाजियाबाद में पहली मल्टीस्टोरी बिल्डिंग, जिसके चर्चे १९९२-९३ से हुआ करते थे, पर चाह करके भी वो कुछ नहीं कर सकते। पर जब भी हफ्ता या महीना जो भी फिक्स होता है वो नहीं पहुंचता तो ये जगह सुनसान हो जाती है। वैसे हम ऑफिस के कुछ साथी हमेशा यहां पर जमते, साथ ही कभी कभी दोस्त भी। फिर शुरू हो जाता सिलसिला साहित्य, गानों, क्रिकेट, शेयर, राजनीति, देश ना जाने कितने ही विषयों पर बैठकर हमलोग चर्चा करते। यहां के कई किस्से कहानी हैं और कुछ दिलचस्प मामले तो मेरे सामने हुए हैं। पीने के बाद की नौटंकी यहां अधिकतर देखने को मिलती है। और यहां से ही कई पोस्ट के प्लॉट भी मिल जाते हैं। इनके बारे में सब बातें अगली पोस्ट में।

जारी है...

आपका अपना
नीतीश राज

Monday, August 25, 2008

16 साल पहले....एक अकेला इस शहर में...भाग २

हमेशा से ही सोचा करता था कि जीवन के कुछ पन्ने हमेशा ही खुले-अधखुले से होते हैं। कुछ पढ़ लिए जाते हैं और कुछ छूट जाते हैं कहीं पीछे। जब मैंने अपने एकांत और दिल्ली के बारे में लिखने के बारे में सोचा तो लगा कि ये तो बहुत ही बड़ा समय था तो क्या पूरा लिखूं लेकिन फिर सोचा कि नहीं। वो लम्हें, ख्याल ही हैं जो सामने आएं तो बेहतर, ज्यादा कुछ नहीं, सिर्फ पल हैं पलों का ब्यौरा नहीं। जहां छोड़ आया था वहां से आगे।

पढ़ाई के दिन तो खत्म होगए थे। अब नौकरी के चक्कर में लगा हुआ दिन-रात सिर्फ और सिर्फ एक जुनून, नौकरी का जुनून। मुझे आधी से अधिक दिल्ली और दिल्ली के आधे से ज्यादा ऐतिहासिक स्थल इस चक्कर में घूमा चुका था। लेकिन अफसोस हर जगह नकारती हुई ये ‘दिल्ली’ मुझे कहीं पीछे छोड़ती जा रही थी।
जब भी हार-थक जाता तो किसी भी पार्क में घुस जाता और जहां छांव मिलती वहीं सुस्ता लेता। साथ ही आगे आने वाले भरेपूरे संघर्षपूर्ण दिनों के बारे में सोचने लगता। उस कल्पना में खो जाता और पाता कि पेड़ जिनके नीचे ये कल्पनाएं हुआ करती थीं वो अधिकतर कुछ मशहूर स्थलों में से हुआ करते। इसी कारण अधिकतर मशहूर स्थलों को देखता परखता अपनी आगे की यात्रा के लिए हिम्मत बटोरता शांत और स्थिरता के वातावरण को अपनी जीवनशैली में ढालता आगे चल देता।
उन जगहों से मिली ताकत के चलते तकरीबन आधे दर्जन महीनों के बाद जीवन के पतझड़ मौसम में बहार ने कदम रखा। फिर लगा जिंदगी जीवंत है और यह जीवन मेरे लिए अमूल्य है। दिल्ली में जिंदगी यापन के लिए एक वक्त में ही दो जगह काम करने लगा। तब भी लगता कि वक्त बच गया कुछ कश्मकश में इधर उधर घूमता रहा और रास्ते साथ चलते रहे और राह बनती रही। लेकिन सुकून के नाम पर कुछ जगहें फिर भी सुकून कहां। तभी लिखने के सिलसिले को आगे बढ़ाया।
दिन बीतते गए और कब-कब में आठ वर्षों का लंबा सफर निकल गया। इस सालों का आंकलन कर पाना मेरे जैसे ‘तुच्छ’ प्राणी के लिए मुश्किल है। परंतु इन वर्षो के लंबे सफर में जिन वस्तुओं के आकर्षण से मोहित होकर मैं यहां आया था। उसमें धीरे-धीरे धूल की वो मोटी परत जम गई की उसे चाह कर भी ना हटा सका। नौकरी के चक्कर में उलझकर जो वस्तुएं शादी के बाद ध्यान में रहती वो पहले ही ध्यान रहने लगी-नून, तेल और गैस। रोजमर्रा की दिनचर्या में जो कुछ शुमार था, तो वो बसों की धक्का-मुक्की और तू तू मैं मैं, अपने से ज्यादा दो पैसे रखे उस पर्स का ध्यान रखना, जो पीछे की जेब में हमेशा पड़ा रहता। वो कान फाड़ देने वाला शोर, प्रदूर्षण, बेफालतू का हॉर्न बजाती गाड़ियां। दिन प्रतिदिन बढ़ती भीड़ और इस भीड़ में मेरे जैसे ही ना जाने कितने अपने भाग्य को आजमाने इस महानगर दिल्ली में आए थे। खुद को असहाय, मजबूर, लाचार उन परिस्थतियों को अपने ऊपर से गुजारते रहने पर मजबूर ये अदना से इंसान.....जो अक्सर खुद से बाते करता और सोचता...वो चंद लाइनें....उस फिल्म की....दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन....।
मुझे याद आती तो सिर्फ और सिर्फ वो ढ़लती सर्दी की वो दोपहर और वो ‘एकांत’ जिसने मुझे इस समंदर में ढ़केल दिया। आज भी याद आता है मुझे वो एकांत जिसमें मैं अपनी कल्पनाओं के समंदर में डूबा करता था। कभी यहां की तो कभी वहां की सोचा करता था। सोलह साल का अंतराल बहुत होता है। अकेला ही इस शहर में आया था, चलता रहा, कुछ अपने मिले, कुछ अपने पराए हो गए। पर अब वक्त ही नहीं इन सब के लिए, उस एकांत के लिए। अपने हर वक्त पर किसी और का वक्त ओढ़ कर चलता हूं। लेकिन अब फिर दिल ढूंढता है वो सोलह साल पहले का एकांत, फिर से कुछ वक्त अपने लिए।


याद आती हैं निदा फाज़ली जी की वो चंद लाइनें ----


....और तो सब कुछ ठीक है, लेकिन...
कभी-कभी यूं ही...
चलता फिरता शहर अचानक...
तन्हा लगता है.....।




आपका अपना
नीतीश राज

Sunday, August 24, 2008

16 साल पहले....एक अकेला इस शहर में.......

बचपन से ही सुंदर व आकर्षक वस्तुओं और जगहों को देखने का शौक मेरे को महानगरों की ओर खींचता था। जब भी महानगरों का जिक्र होता तो उत्सुक्तापूर्वक उस वाद-विवाद में कूद पड़ता और अपने आप को उसका हिस्सा बना लिया करता। शायद महानगरों को देखने का शौक, जिनके बारे में इतना सुना व देखा करता था, अंदर ही अंदर मेरी इच्छाओं को बढ़ाता हुआ अपनी ओर खींचता सा प्रतीत होता। मैं एक छोटी सी जगह में रहने वाला शख्स, जहां की आबादी इन महानगरों की आबादी का 2 या फिर 3 प्रतिशत से ज्यादा तो कतई नहीं होगी। वहां पर रहने वाला शख्स ‘शायद’ हमेशा ही महानगरों में जाना पसंद करे। असलियत से ना वाकिफ एकांत से निकलकर आबादी में आना चाहे। माना कि आज इसी आबादी से भागते हुए लोग छोटी जगहों की राह पकड़ रहे हैं। गोया आज से तकरीबन सोलह साल पहले सर्दी की खत्म होती एक दोपहरी में भारत के महानगरों के महानगर ‘दिल्ली’ में मैं अपना बोरिया बिस्तर लेकर आ गया।
वो खत्म होती सर्दी की एक दोपहर आज भी याद है। उस दोपहर को किस संज्ञा से संबोधित करूं शायद मेरे लिए यह समझ पाना आसान नहीं है। उस दोपहर को अपने जीवन की अच्छी दोपहरों में से एक कहूं या फिर बुरी। बाद के कई सालों तक मैं महानगरों की रातों में असमंजस में पड़ा अधिकतर इस बात को अंधेरे से भरे अपने कमरे में सोचता रहता था। सोचता था कि किस बात के कारण आज मैं अपने सगों को छोड़कर, अपने प्यारों को छोड़कर, यहां आया। क्या सिर्फ इस बात के लिए, कि आज जैसी ही किसी रात को अंधेरे से घुप कमरे में चटाई के ऊपर पड़ा इस बात का तोल-मोल करता रहूं कि कहीं मैंने भूल तो नहीं कर दी, मुझसे जिंदगी की सबसे बड़ी गलती तो नहीं होगई। इस कमरे में मेरे पास चटाई और घर से लाए दो-चार बर्तन, थैले में रखे कुछ जोड़ी कपड़े और मेरी सबसे कीमती धरोहर के रूप में एक ट्रंक भरी किताबें। इस महानगर में आए 7 साल बीत चुके थे तब तक इन्हीं ख्यालों के भंवर में फंसा रातों को अपनी आंखों को नम किए लेटा रहता था।
मुझे बचपन से ही कला जगत से प्यार था और 1992 में कला और संस्कृति की धरोहर माना जाने वाला ये शहर मुझे अकारण ही खींचता था। ये भी एक वजह थी कि महानगरों के राजा को मैंने अपने जीवन के लिए चुना। पहले दिन से ही मुझे अपनी तरफ खींचता, अपने में बांधता, अपने में समाता, अपने आकर्षण में कैद करता सा प्रतीत होता। शुरू से ही इसकी चमक-दमक ने मुझे प्रभावित किया। जैसा सुना था वैसा ही पाया भी। आलीशान इमारतें, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, साफ-सफाई के साथ सुंदरता। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का गढ़, ऐतिहासिक धरोहर से परिपूर्ण जिसमें कुतुबमीनार, पुराना किला, स्वतंत्रता का प्रतीक लाल किला, इंडिया गेट, लोधी गार्डन, चांदनी चौक आदि। इन सब को देखने और इन के बारे में जानने को उत्सुक व इनसे जुड़े सपने लिए कुछ चंद महीने तो यूं ही निकल गए कि जिनका विवरण मेरे पास मौजूद भी नहीं। सिर्फ जुबान पर हमेशा याद रहता तो ...एक अकेला इस शहर में...।



जारी है.....


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नीतीश राज

Sunday, August 17, 2008

“नहीं, नहीं...मैंने क़त्ल नहीं किया”-भाग 2

अब यहां से आगे...

उसके नजदीक आते के साथ ही मेरी किक उसके जबड़े पर पड़ी और वो अपने मुंह पर हाथ रख पीछे की तरफ गिरा। उसके मुंह से खून की धारा फूट पड़ी। मेरी किक लगी भी ठीक जगह पर थी, साथ ही जानदार तरीके से भी। वो मुंह पर हाथ रखे जमीन पर सीधा गिरा पड़ा था। मैंने तेजी दिखाई और उसकी तरफ लपका और मेरा दूसरा निशाना सीधे उसके पेट के नीचे था। तभी दो लड़के उन लोगों को छोड़कर मेरी तरफ लपके। उनमें से एक तो मेरी तरफ आया और दूसरा अपनी खड़ी स्कोर्पियो की तरफ बढ़ गया। मुझे एहसास हो चला कि दूसरा बंदा हथियार निकालने के लिए गाड़ी की तरफ बढ़ा है। लोगों का हुजूम बढ़ रहा था और सब ये देख रहे थे। जैसे कि किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो।
मेरे सामने अब ये करीब 18-19 साल का लड़का था। देखने से ही लग गया कि ये फुर्ती में मुझपर भारी पड़ेगा। उसने सीधा घूसा मेरी नाक पर जड़ दिया लेकिन यहां हल्की सी तेजी मैंने दिखा दी, नहीं तो मैं भी उसी समय लहूलुहान हो चुका होता। मैं जल्दी से अपने चेहरे को थोड़ा सा साइड कर दिया। उसी कारण से उसका घूसा मेरी नाक को छोड़ कनपटी पर पड़ा। मैं दर्द से कराह तो गया लेकिन उतनी ही तेजी से मेरे दाएं पैर का घुटना उसकी छाती और पेट के बीच वाले उस कमजोर हिस्से पर लगा बिल्कुल हॉलो प्वाइंट पर। घुटने की ताकत और सही जगह पर पड़ने के कारण उस लड़के की चीख तक नहीं निकली। बिना कुछ किए वो लड़का चुपचाप नीचे बैठ गया। ये घातक वार मैंने डिस्कवरी चैनल के एक एपिसोड से सीखा था।
वो आदमी जो गाड़ी से हथियार निकालने गया था। ठिठका हुआ सा देख रहा था। वो तुरंत गाड़ी की तरफ भागा। वो समझ चुका था कि मेरा सामना वो नहीं कर पाएगा और मेरे लिए वो गाड़ी में पड़े सामान का ही सहारा लेना चाह रहा था। मैं भी लपक लिया उसी दौरान जितने बाकी बचे थे उनमें से दो भी मेरे पीछे लपके। गाड़ी की ड्राइविंग साइड की दूसरी तरफ का दरवाजा खोल कर वो आदमी नीचे खड़ा डेशबोर्ड की तरफ से कुछ निकाल रहा था। ये मौका मैं गवाना नहीं चाहता था। मैं दौड़ा, वो बाहर निकल रहा था, मैं सीधे दरवाजे पर कूद गया और उसके पैर और मुंह से आवाज़ें एक साथ फूटपड़ीं। मैं समझ गया कि इसका तो काम हो गया। पैर की कोई हड्‍डी बाप-बाप चिल्लाते हुए टूट चुकी थी। वो दोनों लड़के मेरे नजदीक आ रहे थे। उनके चेहरे गुस्से में बहुत बुरे लग रहे थे। मैं भी तैयार था उन दोनों से एक साथ भिड़ने के लिए।
तभी कुछ लोहे जैसी चीज के गिरने की आवाज सुनाई दी मुझे। जो आदमी गाड़ी के दरवाजे पर अभी तक अटका पड़ा था वो धम से सड़क पर बैठ गया। उसके हाथ में कुछ था जो कि सड़क पर जब गिरा तो हल्की सी आवाज़ हुई और वो मैंने सुन ली। उस आदमी ने उस चीज को संभालते हुए, बैठे-बैठे ही गाड़ी का दरवाजा बंद कर दिया। अब मुझे साफ दिख रहा था कि उसके हाथ में पिस्तौल थी। मैंने जिंदगी में कभी भी पिस्तौल, बंदूक नहीं देखी। उसने पिस्तौल का मुंह मेरी तरफ करना शुरू किया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मैं समझ चुका था कि मुझे क्या करना है। यदि पिस्तौल के गिरने की आवाज़ मैंने नहीं सुनी होती तो शायद मैं ये सोच नहीं पाता जो कि मैं सोच गया था।
उसका हाथ जब तक मेरी तरफ उठता एक फ्लांग मारकर मैं खुद उसका पिस्तौल वाला हाथ थाम चुका था। इसी गुथ्था-गुथ्थी में एक फायर भी हो गया और गोली सामने खड़े उन दोनों लड़कों में से एक के जिस्म में धसती चली गई। वो एक चीख के साथ पीछे की तरफ धड़ाम से गिर गया। वहां पर हलचल मच गई। लेकिन तभी दूसरी गोली भी चली और दूसरे लड़के के सर में जा धंसी। वो लड़का पहले वाले लड़के को नीचे झुक कर देख रहा था वहीं उसी के ऊपर ही लुढ़क गया। इनके साथी और वो दोनों जो कि पिट रहे थे अवाक से इस घटना को होते हुए देख रहे थे। हर तरफ बिल्कुल सन्नाटा था। तभी तीसरी गोली के चलने की आवाज़ आई, लेकिन इस बार अब तक शांत खड़ी भीड़ इधर-उधर तितर-बितर होने लगी। हर जगह से चीख ही चीख सुनाई दे रही थे। मुझे समझ में नहीं आया कि तीसरी गोली चल तो गई थी लेकिन गई कहां और लगी किसे। मैंने उसके हाथ को अपनी गिरफ्त में कसा हुआ था। बहुत देर से हम एक दूसरे से जूझ रहे थे। मैं कोशिश कर रहा था कि मेरे हाथ से उसका हाथ छूट ना जाए। अब की बार मैंने उसकी कलाई मोड़ दी और गोली उसकी जांघ में छेद कर चुकी थी और वहां से फूटा खून का फव्वारा मेरे हाथ रंग चुका था।
कभी मैं अपने हाथों को देखता कभी वहां पर खड़े रह गए लोगों की आंखों में। मेरी आंखें उनसे सवाल करती। क्या मैं गुनहगार हूं? क्या मैं क़ातिल हूं? सबकी शांत आंखें कई बार तो चुगली कर रही थी कि हां, कि लाशें तो पड़ी हैं तो क़त्ल तो हुआ है। लेकिन मेरी आत्मा कह रही थी नहीं...मैंने क़त्ल नहीं किया, मैंने क़त्ल नहीं किया, नहीं...नहीं...मैंने क़त्ल नहीं किया। मेरे में इतनी हिम्मत कहां से आ सकती है कि मैं किसी का क़त्ल कर सकूं। मैं चीख रहा था और मेरी चीख लगातार बढ़ती जा रही थी।
पत्नी ने झकझौड़ा, और मैं नींद से जाग गया। पत्नी ने आग्रह रूप में कहा कि, क्यों एक ही बात को बार-बार सोचते हो। मैं अपने हाथों को देखता कि कहीं खून लगा तो नहीं हुआ है और सोचता कि क्या मेरे में इतनी हिम्मत आ सकती है। ये ही सोचते सोचते एक अंतिम बात ध्यान आई, कि तीसरी गोली इन्हीं के साथी को जो कि ऑटो वाले को पीट रहा था उसके पेट में लगी थी और वो ऑटो पर जाकर हमेशा के लिए टिक गया था।

(यहां पर आप को ये बताना चाहता हूं कि ये पूरा वाक्या मेरे साथ एक रोज हुआ था। बस उसमें थोड़ा से फेरबदल ये है कि जब मैं बाइक से उतरा और उन से लड़ने लगा तो एक दो लोगों ने भी थोड़ी मदद की और साथ ही कुछ ने पुलिस को फोन भी कर दिया। जब वो शख्स पिस्तौल निकाल रहा था तब तक पुलिस आ गई और उसने उन लोगों के साथ मुझे भी थाने चलने के लिए कहा था। लोगों के कहने पर उन गुंडों को हिरासत में ले लिया गया। लोगों के साथ मैंने भी रिपोर्ट दर्ज कराई। जब मैंने अपने बारे में पुलिस को बताया तो फिर छोड़ने में उन्होंने देर नहीं की। लेकिन मुझे हमेशा ही ये लगता रहा कि इन जैसे दरिंदों की समाज को क्या जरूरत है। ये इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा कदम उठा लेते हैं और साथ ही अपनी हार इन्हें गवारा ही नही, इन्हें हथियार तक का सहारा लेने से कोई भी गुरेज नहीं। तो कई बार दिमाग कहता है कि यदि तब पुलिस नहीं आई होती और उसके आगे कुछ हुआ होता तो ये ही हुआ होता जहां पर मेरा सपना खत्म होता है। इसलिए बहुत बार मैं इस घटना को सपने के रूप में देख चुका हूं। मैंने सोचा कि अपने इस नासूर बन चुके सपने को आप को भी बताऊं, जब भी कुछ उल्टा सीधा देखता हूं तो ये सपना मुझे रात में आकर सताता है। पता नहीं भुलाए नहीं भुलती ये घटना।)

आपका अपना

नीतीश राज

Wednesday, August 13, 2008

“नहीं, नहीं...मैंने क़त्ल नहीं किया”

सड़क के किनारे ३ गाड़ियां खड़ी थी। एक थ्री व्हीलर और दो स्कोर्पियो। करीब-करीब 6-7 आदमी वहां खड़े थे। एक आदमी हाथ जोड़ रहा था और उसे ये मिलकर पीटने में लगे थे। मेरेk लिए अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि जो पिट रहा था वो थ्री व्हीलर यानी ऑटो चलाने वाला था। मेरी बाइक की स्पीड अपने आप धीरे होती चली गई। एक दो और गाड़ियां रुकने लगी। वो मिन्नतें कर रहा था और ये सारे मिलकर उसे बुरी तरह से बेरहमी से पीट रहे थे। एक आदमी पर इतने सारे आदमी, ये कहां की बहादुरी है? मैं सोच ही रहा थी कि देखा एक आदमी आगे बढ़ा और भिड़ गया उन लोगों से। वो आदमी उन सब को रोक रहा था।
‘अरे, ये क्या कर रहे हैं आप। एक आदमी पर इतने लोग पिले हुए हों आखिर इस शख्स की गलती क्या है’।
वो आदमी देखने से पढ़ा लिखा और उसकी उम्र लगभग ३५-३६ के करीब की रही होगी। उस आदमी के हौसले की दाद देता हूं कि उसने ये जज्बा दिखाया। अब उन लोगों ने उस बेचारे को मारना बंद कर दिया। ‘हम साइड मांग रहे थे और ये दो कौड़ी का आदमी हमें साइड नहीं दे रहा था’।
जो शख्स बचाने गया था बिल्कुल बिफर पड़ा उन लोगों पर कि ये क्या बदतमीजी है। सिर्फ इतनी सी बात पर इतनी पिटाई, अरे, चोरों की पिटाई भी पुलिस इस तरह से नहीं करती। उस ऑटो वाले की तो हालत खराब थी। आंख से आंसू और चहरे से खून दोनों बराबर बह रहे थे। वो रो भी रहा था और बुदबुदाने में भी लगा हुआ था। इन लोगों को उसके बुदबुदाने पर गुस्सा आगया पहले बुदबुदाने को मना किया, लेकिन उसका बुदबुदाना बंद नहीं हुआ।
‘भगवान सब देख रहा है,कीड़े पड़ेंगे तुमको, तुम्हारे घर वालों को, मेरी क्या गलती थी..’।
उसका बुदबुदाना पसंद नहीं आया फिर लगे उसे मारने। जो शख्स बीच बचाव कर रहा था उसने बचाने की कोशिश की तो उस पर भी हाथ साफ करना इन दरिंदों ने शुरु कर दिया। अब एक नहीं दो आदमी पिट रहे थे और हम तमाशबीन बने ये सब देख रहे थे।
मैं नहीं जानता कि तब मुझे क्या हुआ। मैं भी और लोगों की तरह ये पूरा माजरा देख रहा था। वो दोनों बुरी तरह से पिट रहे थे। जो शख्स बचाने गया था उस की नजर एक बार मेरी नजर से मिली, आंखें बोल रही थी, “बताओ तो, क्या गलती है मेरी।” एक पल में मैंने बाइक साइड स्टैंड पर लगाई और हैल्मेट उतार, अपना चश्मा उसमें रख कर उनकी तरफ चल दिया।
मुझे अपनी तरफ आता देख उनमें से एक शख्स तुरंत मेरी तरफ लपका। उसकी लंबाई लगभग ६.४ होगी। मुझे नजदीक आता देख वो मुस्कुरा रहा था। वैसे मेरी लंबाई भी ६ के करीब ही है। फिर भी वो मेरे से बहुत लंबा लग रहा था। शरीर में मेरे से दोगुना, देखने से ही पहलवान की तरह लग रहा था। पता नहीं मैं अपने अंदर इतना गुस्सा क्यों और कैसे महसूस कर रहा था। उसके बाद जो कुछ हुआ मैंने कैसे कर दिया वो सब, मुझे पता नहीं।

जारी है....

आपका अपना
नीतीश राज