Tuesday, September 30, 2008

दुश्मनी, सर और सरहद भाग-१

लोग दोस्ती दिल से करते हैं, ये तो आप ने कई बार सुना होगा और साथ ही देखा भी होगा। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दुश्मनी भी दिल से करते हैं। कुछ की दुश्मनी जुबान से नहीं काम से होती है। और जब वो दुश्मनी निभाने पर आते हैं तो सरहदें भी उनको रोक नहीं पाती हैं। तो आज बात उसी अनोखी दास्तान की जिसकी चिंगारी उठी तो हिंदुस्तान से पर खत्म हुई पाकिस्तान में पर लौ अभी तक जल रही हैं अपने अंजाम तक पहुंचने के लिए।
बात उस डाकू कि वो जब ज़िंदा था तब भी मशहूर था लेकिन मरने के बाद उसकी दास्तान उसकी जिंदगी से ज्यादा मशहूर हुई। उसकी मौत उसकी जिंदगी पर भारी होगई। हिंदुस्तान का वो डाकू जिसने थार की रेतीली ज़मीन पर 70 के दशक में ख़ौफ़ की इबारत लिखी, आज भी इस इलाके का बच्चा-बच्चा उस डाकू को जानता है। उस डाकू का नाम कर्नाराम भील है। कर्ना भील का नाम जुबान पर आजाने से ही राजस्थान की रेगिस्तान की उड़ती रेत अपना रुख बदल लेती थी।
डाकू कर्ना जब तक ज़िंदा रहा तब तक उसको हाथ लगाने वाला भी कोई नहीं था और मरने के बाद भी उसके शरीर को कोईं हाथ नहीं लगा पा रहा है। कर्ना का नसीब तो देखिए आज भी उसका बेजान शरीर अंतिम संस्कार की राह तक रहा है। उस की चिता को अग्नि देने वाला कोई नहीं ऐसा भी नहीं है। भरा पूरा परिवार है उसका, लेकिन वो मुखाग्नि दें किसको क्योंकि दुश्मन उसका सर काट कर अपने साथ सरहद पार ले गए हैं।
पिछले 17 सालों से अपने अंतिम संस्कार की राह तक रहा है डाकू कर्ना का शरीर। वो कोई कब्रिस्तान नहीं, शायद वो इक्लौता शमशान होगा जहां पर कब्र है और कोई मुर्दा, चार दीवारी में कैद, अंतिम संस्कार की राह तक रहा है। सितम तो देखिए कि वो चिता के इतने करीब होते हुए भी चिता से उतनी ही दूर है।
डाकू कर्ना राम भील, जिसको हिंदुस्तान का रॉबिनहुड भी कहा जाता है। कर्ना की कहानी भी कुछ रॉबिनहुड की तरह, जो मरने के बाद मशहूर हुआ ना कि जिंदा रहते हुए। जो भी जैसलमेर से गुजरता उस पर क़हर बनकर डाकू कर्ना और उनके साथी टूट पड़ते ख़ास कर अमीरों पर। कहते हैं कि अमीरों को लूटकर वो गरीबों में बांट दिया करता था इसलिए कुछ उसे रॉबिन हुड कहा करते थे। कर्ना भील अपनी लंबी मूछों की वजह से गिनीज बुक ऑफ रिकॉडर्स तक में अपना नाम दर्ज करवा चुका था। नट बाजा पर दिलकश संगीत बिखेरना भी उसकी शख्सियत में सुमार था।

जारी है....

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, September 26, 2008

कुर्बानी, 84 गांव और एक लड़की-भाग 2

अभी तक आप ने पढ़ा--
सालम सिंह की नजर इस कुलधरा गांव की एक सुंदर लड़की पर जा पड़ी। 50 साल के सालम सिंह को वो पसंद आ चुकी थी वो इतना उतावला हुआ कि सब भूल गया, बस वो हासिल करना चाहता था कुलधरा गांव की उस इज्जत को। किसी भी तरह से उस चाहिए तो वो सुंदरी अपने हरम में।
सालम सिंह ने अपना संदेशा उस परिवार तक पहुंचा दिया जिस घर की वो सुंदरी थी। सालम सिंह ने बस्ती के लोगों को पूर्णमासी की रात तक फैसला करने की मोहलत दी। इसी मोहलत के साथ साथ सालम सिंह की धमकी भी थी कि पूर्णमासी की अगली सुबह बस्ती पर धावा बोलकर लड़की को उठा के ले जाएगा। गांव वालों ने मोहलत पर कम और धमकी पर ज्यादा गौर किया। ये सब वो ब्राह्मण गांव के लोग सहन नहीं कर सके। सभी 84 गांवों ने मिलकर एक जगह पर बैठक की। एक ब्राह्मण की बेटी को उस अधेड़ दीवान के सुपुर्द करना उनकी गैरत के खिलाफ था। सभी 84 के 84 गांव के लोग कुलधरा में मंदिर के पास इक्टठा हो गए। ब्राह्मणों की पंचायत हुई, पंचायत में एक आवाज पर फैसला होगया। 84 गांव के हजारों लोगों की एक ही आवाज़। कुछ भी हो जाए अपनी बेटी को उस अधेड़ के सुपुर्द नहीं करेंगे। चाहे उसकी कितनी बड़ी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े।
फैसला हो चुका था। ब्राह्मण की लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए 84 के 84 गांव फौरन सुबह का इंतजार किए बगैर ही जैसलमेर की रियासत से कहीं दूर निकल जाएंगे। एक ही रात में भरा पूरा गांव खाली हो गया। पर वो अपना धर्म नहीं बेचेंगे, वो अपनी लड़की की इज्ज़त को नहीं बिकने देंगे। 84 के 84 गांव के लोग एक ही रात में जैसलमेर जिला छोड़कर कहीं दूर चले गए। मगर जाते जाते ये बस्ती वाले इन गांवों को ये श्राप भी दे गए कि दोबारा कभी इन घरों में कोई बस नहीं पाएगा। जो गए वो कभी यहां पर लौट कर नहीं आए।
वक्त गुजरने के साथ कुछ लोगों ने और सरकार की तरफ से भी इन उजड़ी बस्तियों को बसाने की कोशिश की गई मगर तमाम कोशिशें नाकामयाब ही रहीं, ये गांव कभी आबाद नहीं हो पाए। उनका दिया श्राप आज भी इन गांवों को बसने नहीं देता। जो भी यहां बसने के लिए गया पूरे के पूरे परिवार पर आफत ही टूट पड़ी। ऐसी विपत्ति आती की किसी की जान लेकर ही जाती। घर का कोई ना कोई मरता जरूर।
सरकार की ये कोशिश तो असफल रही पर सरकार ने दूसरी कोशिश जरूर शुरू कर दी है। इन तमाम गांवों की घेराबंदी कर दी गई है। सदर दरवाजे पर चौकीदार को बैठा दिया गया है। गांव तो ना आबाद हुआ और ना ही कभी आबाद होगा पर उजड़ने के बाद भी ये गांव पर्यटकों की जेबों से पैसे निकालकर सरकार की झोली जरूर भर रहा है। घर की बहू-बेटी की इज्ज़त की खातिर जो मिसाल इन पत्थरों में रहने वाले गांव वालों ने दी है उस की मिसाल कभी दूसरी मिल ही नहीं सकती। वो पत्थर जो बिखरा तो है पर टूटा अब भी नहीं।

आपका अपना
नीतीश राज

(अगली बार एक और ऐसी ही रोचक और सच्ची कहानी के साथ, पढ़ना जरूरी है)

Wednesday, September 24, 2008

कुर्बानी, 84 गांव और एक लड़की-भाग 1

मिसालें तो मिलती हैं और बहुत मिलती है, कुछ मिसालें याद की जाती है क्योंकि वो अनोखी होती हैं। दिल और दिमाग खोलकर पढ़िए ये मिसाल सिर्फ एक शख्स की नहीं, एक घर नहीं, एक कुनबा नहीं, चंद परिवार नहीं, एक गांव नहीं, पूरे 84 गावों के हजारों लोगों की मिसाल है।
माना जाता है लड़की की इज्ज़त वो पाक चीज होती है जिसकी कीमत ना तो बनाने वाले ने तय की ना ही खुद जिसकी वो है और खरीदने वाले की औकात ही नहीं जो ये तय कर सके। एक तरफ लड़की की इज्ज़त और दूसरी तरफ 84 गांव के हज़ारों लोग। गांव वालों के पास सिर्फ एक रात की मोहलत थी या तो वो लड़की की इज्ज़त का सौदा कर लें या फिर उस सज़ा के लिए तैयार हो जाएं जिसके क़हर से खुद सज़ा तक कांपती थी। रात गुजरी और सुबह से पहले ही 84 गांव हजारों लोगों ने जो फैसला किया उस कुर्बानी की मिसाल दुनिया में कोई दूसरी नहीं मिल सकती।
बस्ती जो कि पत्थर की बस्ती बनी, वहां आज सन्नाटा पसरा हुआ है पर बरसों पहले यहां पर जिंदगी बसा करती थी। वो जिंदगी क्या उजड़ी अब तो परिंदों की परवाज भी थम कर रह गई। बस्ती पर हावी है तो खामोशी जिसमें घुलने के बाद आवाज़ भी पुरजा पुरजा हो जाती है। वो जगह ना तो शमशान है ना ही कब्रिस्तान, पर वहां दफन हैं 84 गांव, जहां पर एक ही रात में भरी पूरी बस्ती पत्थर की बस्ती में तब्दील हो गई(बार-बार पत्थर की बस्ती लिखने का अभिप्राय ये है कि वहां पर सिर्फ और सिर्फ पत्थर यानी कि मकान रह गए हैं)।
जैसलमेर से 50 किलोमीटर की दूरी पर पत्थरों से बनी कुल 84 बस्तियां थी या यूं कह लें कि 84 गांव थे। ब्राह्मणों के एक गांव का नाम था पालिवाल। करीब 150 साल तक पूरी तरह आबाद और गुलजार रहे इस गांव को जैसलमेर के दीवान सालम सिंह की नज़र लग गई। सालम सिंह के बारे में कहा जाता है कि वो जैसलमेर का बेताज बादशाह था जबकि था वो सिर्फ एक दीवान। जहां से भी वो निकलता औरतें दरवाजों के अंदर ही अपने को महफूज समझती। जिस गली की तरफ उसके घोड़े का रुख होता वो गली पल भर में कई घंटों के लिए वीरान हो जाती। सालम सिंह की अय्याशियों की कई कहानियां प्रसिद्ध थीं। वो जिस को भी एक बार पसंद कर लेता, उसे अपने हरम में चाहता।

जारी है.....

आपका अपना
नीतीश राज
(सच्ची कहानी पर आधारित)

Sunday, September 21, 2008

अपना एक अड्डा- अंतिम भाग

शायद किसी ने मेरे इस अड्डे के बारे में पुलिस को बता और पढ़ा दिया। पुलिस ने इस बार कुछ ज्यादा ही सख्ती दिखाते हुए यहां की जगह को खाली करा दिया। अब वहां पर ना तो कोई ढाबा, ना ही कहीं कोई ऑम्लेट वाला। मेरा जाना नहीं हो पाया काफी टाइम से पर आज मेरे मित्र ने फोन पर बताया। पर हां, खाना ना मिले, अंडे ना मिलें, नॉन वेज ना मिले पर पीने का सामान यहां अब भी पुलिस की नाक के नीचे मिलता है। बशर्ते की आप सामान लें और तुरंत यहां से बिना शोर मचाए निकल लें। अब यहां पर रातों में जाम नहीं छलकते पर छलकाने का इंतजाम अब भी बरकरार है। चलिए, आज बात करते हैं जब यहां पर जाम छलकते थे और लोगों के कदम बहकते थे।
“जहां चार यार मिल जाएं वहीं रात हो गुलजार जहां चार यार....” आनंद विहार के इस अड्डे पर रात घिरते ही यार पहुचंने लगते हैं। फिर तो सिलसिला शुरू होता बैठने का, पीने का, पिलाने का और बातें उड़ाने का। यहां पर जब भी आप आएंगे तो दो-चार लड़के भाग कर आप के पास मेन्यू लेकर पहुंच जाएंगे। ‘कौन सी चाहिए?’ कन्फूयज ना हों और इसका मतलब भी अन्यथा ना लें। ये पूछते हैं कि व्हिस्की, रम, बियर आदि क्या चाहिए।
मेरे ही सामने दो लड़के एक ही बैंच पर दोनों तरफ पैर करके आमने-सामने बैठे हुए हैं। साथ में पीने के लिए जो-जो सामान चाहिए वो सब बीच में रखा हुआ। एक कह रहा है कि, देख, तूने गलत किया, तेरे को ऐसे नहीं कहना चाहिए था। दूसरा, क्यों में हाथ का इशारा करता है। शायद ज्यादा हो जाने की वजह से ये क्यों जैसा फिसलू शब्द उसकी जुबान से फिसल रहा है। बॉस ने जो कह दिया वो सराखों पर, पता नहीं तेरे को क्या हुआ जो कर बैठा बहस। आज तो मैं पिला रहा हूं पर कल तू कहां से पिएगा। मतलब समझने में देर नहीं लगी कि पहले वाले की नौकरी जा चुकी है। गम गलत करने के लिए बेचारा जाम पे जाम लगाए जा रहा है। वैसे भी यदि इनक्रिमेंट हो गया होता तब खुशी में पीता और कुछ घटित नहीं होता तो इस गम में कि कुछ हुआ क्यों नहीं। पहले वाला दूसरे के कंधे पर सर रखकर रोने लगा और फिर दूसरे वाला उसे उठाकर के ले गया और कोने में उसको बैठा दिया। ज्यादा पीने की वजह से पहले वाले का हाल बेहाल होचुका था। मतलब समझ गए होंगे।
एक दिन तीन-चार लड़के पीने में लगे रहे फिर जब पैसे मांगे गए तो एक-दूसरे पर टालमटोल करने लगे। दुकानदार कभी किसी के पीछ भागे कभी किसी के। कुछ पहले के उधारी भी थे। मैं वहीं खाना खा रहा था, अपने ऑफिस के दो सहयोगियों के साथ । दुकानदार ने सब को अपने पास बुलाया और पैसे मांगे। उनमें से एक जिसको की पैसे देने थे वो तेज तेज चिलाकर बदतमीजी करने लगा। थोड़ी देर में ५-६ दुकानदार आए और उससे पैसे मांगे पर वो उनसे भी उलझ गया।मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी पिटाई नहीं देखी। एक अकेला लड़का और ८-१० दुकान के लड़के उस पर लात-घूंसों से दे दनादन। उसके जितने साथ में पीने वाले थे कोई भी आगे नहीं आया वो पिटता रहा। जब हमने बीच बचाव किया तब वो छूटा। और फिर उस दुकानदार के पास अपनी घड़ी-मोबाइल कस्टडी में रखकर, माफी मांग कर चला गया। मैंने सोचा कि यदि ये ही करना था तो पहले ही कर दिया होता। पिटाई हुई और इज्जत गई सो अलग।
वैसे तो, ऐसे बहुत से किस्से हैं यदि कहुं तो अगली पोस्ट के बाद तक भी सिलसिला चला जाएगा। तो इसलिए यहीं खत्म करते हैं, पर...हां, एक किस्सा और सुनाते हुए खत्म करूंगा।
दो बंदे खूब पी चुके थे। पीने के बाद खाने का ऑर्डर किया उन्होंने बड़ी मुश्किल से, और उतनी ही मुश्किल से वो बैंच पर बैठ पाए। हम लोग निकलने वाले थे लेकिन मैंने सब को रोक लिया। मुझे यहां पर एक किस्सा दिख रहा था। दोनों ऐसे बैठे थे कि हवा का एक झौंका उनको गिराने के लिए काफी था। खाना सामने लग गया तो थोड़ी दिक्कत के बाद रोटी तो तोड़ ली। हाथ लगातार हिल रहे थे। सब्जी लगाने के लिए दूसरे हाथ से पहले हाथ को पकड़ रहे थे। कैसे-कैसे करके तो सब्जी लगाई पर अब हाथ मुंह में जाने की बजाय दाएं-बाएं से निकल रहा था। बार-बार वो कोशिश करें और उतनी ही तेजी से कोशिश नाकाम हो रही थी। हम ये देख-देख कर पेट पकड़कर हंस रहे थे। उनके लिए तो ये एक जंग जैसा ही था पर हमने फिल्मों के अलावा ये सीन पहले कहीं नहीं देखा। हम हंसते हंसते वहां से निकल लिए। नहीं जानता कि वो खाना खा पाए भी या नहीं।
सच में पीने वालों की तो बात ही निराली होती है। कई शायरों,कवि को तो ये प्याला क्या से क्या बना गया पर कुछ के लिए तो ये.....महज एक प्याला ही रहा। हां, आनंद विहार का ये अड्डा याद तो बहुत ही रहेगा पर देखना अब ये है कि उनकी ये अमावस्या (बंद वाली बात) कब खत्म होती है।

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, September 3, 2008

अपना एक अड्डा-भाग २

आनंद विहार के इस अड्डे पर जैसे ही आप एंट्री करेंगे तो चार-छह लड़के तुरंत दौड़ते हुए आप के पास आजाएंगे। उनकी लिस्ट सुनेंगे तो हैरान रहे बिना नहीं रह सकेंगे, इतनी रात में भी इतना कुछ। सर, बताइए तो क्या लेना पसंद करेंगे। आप सोचेंगे कि गाड़ी आगे लगा लें कही पुलिस ने पकड़ लिया तो रात काली होने में देर नहीं लगेगी, फिर देते रहो पैसे। आप सोचेंगे कि इन लोगों की सैटिंग होगी इन पुलिसवालों से ये तो बच जाएंगे और आप फंस जाएंगे। हां, ये सच भी है कि इनकी सैटिंग होती है पुलिसवालों से, और इनका मानना है कि पुलिस हफ्ता लेती है तो वो इनके ग्राहकों को तंग भी नहीं करेगी। पर हरबार ऐसा होता नहीं है।
सबसे पहले होगी आप को अपनी तरफ खींचने की होड़। पर यहां अधिकतर वो लोग आते हैं जिनको पता रहता है कि किस जगह पर क्या और कैसा मिलता है। रेट में ये हमेशा ही गच्चा देते रहते हैं, ऐसे ही जैसे कि सरोजनी नगर आप जाएं तो मार्केट वाले। पर खास ये कि इस होड़ में कभी भी इन लोगों के बीच में लड़ाई मैंने तो नहीं देखी और ना ही सुनी है।
कई बार ज्यादा पीने के बाद यहां पर नौटंकी देखने वाली होती है। यहां बैठकर सिर्फ कान-आंख खुली रखिए। फिर देखिए क्या-क्या नजारे देखने को मिलते हैं। एक से बढ़कर एक फेंकूं तो पीने के बाद ही होते हैं। इस की बात फिर कभी।

हां, ऐसी जगहों पर पुलिस हमेशा आस-पास रहती ही हैं। एक तो गैरकानूनी, यदि कुछ लफ्ड़ा होगया तो फंसेंगे पुलिसवाले भी। पुलिसवाले कानून की आड़ में ही कानून का मजाक उड़ाते हैं। यहां देर रात में जब कोई भी गुट या फिर व्यक्ति विशेष ज्यादा आउट होने लगता है तो इन दुकानदारों के गठजोड़ के अलावा यहां की पुलिस का डर हमेशा लोगों के दिमाग में रहता है। ज्यादा पी लेने के बाद कई बार बदतमीजी होती हैं, ऐसी जगहों पर। तो उनकी सेवा भाव के लिए, पुलिस है ना, सदैव तत्पर-आपकी सेवा में उपलब्ध। कई बार तो लगता है कि पुलिस इनके लिए है हमारे लिए नहीं।
मैंने यहां ये भी देखा है कि कभी कोई पुलिस की गाड़ी आएगी और तुरंत यहां कि लाइटें बंद कर दी जाती है। लोग यहां-वहां हो जाते हैं। जो दिखता है उस पर पुलिस डंडे छोड़ देती है चाहे वो यात्री ही हो और बेचारा सिर्फ सुफियाने अंदाज में खाना ही क्यों ना खा रहा हो।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। ये तकरीबन तीन साल पहले की घटना होगी। एक रोज ऑफिस से निकलते हुए देर होगई तो सोचा कि चलो खाना खाकर फिर घर का रुख करेंगे। रात के एक बजे के बाद का वक्त रहा होगा। जे. पी. जो कि अलीगढ़ का रहने वाला है यहां पर अपना स्टॉल लगाता है। जब भी खाना होता है तो, मैं यहां ही खाता हूं। जेपी तेल कम डालता है साथ ही थोड़ा साफ सफाई भी है और खाना बनाता भी दिल से है और उसके खाने में थोड़ा स्वाद भी है। मेरा खाना लगभग खत्म होने वाला था। तभी वहां पर पुलिस आगई। पुलिस अपने पुराने राग को अंजाम देने लगी, बरसाने लगी डंडे। मेरे बगल में बैठा था एक व्यक्ति जो कि एटा से आया था, जाना था मालवीय नगर। (ये घटना के बाद पता चला था) बस से उतरा सोचा कि पहले खाना खा ले फिर ऑटो करके घर चला जाएगा। वो खाना खा रहा था, उस की बैल्ट के नीचे डंडा लगा वो एकदम से कराह गया। उसका हाथ जहां का तहां रुक गया और मुंह का कौर मुंह से बाहर निकल आया। जितनों ने देखा सब का दिल धक्क से रह गया। मुझे तो लगा कि शायद ये प्रहार कहीं इस शख्स के प्राण ही ना ले उड़े। मैं बगल में था पुलिस वाले का हाथ फिर उठा और इस बार बारी मेरी थी। पर तभी जेपी ने आवाज़ लगाई और मैं भी उसी वक्त खाना छोड़ खड़ा हो चुका था। हवालदार ने डंडा घुमाया तो पर वो लगा बैंच पर। मेरी जान में जान आई। तब तक वो शख्स संभल गया था, वो उठा और उसने आव देखा ना ताव उस पुलिसवाले की पीठ पर एक घूंसा मार दिया। हम सब अवाक थे। दोनों एक दूसरे पर पिल पड़े। पुलिस की वर्दी का रौब तो होता ही है पर वो लड़का तो छोड़ने के मूड में था ही नहीं। रोता जा रहा था और मारता जा रहा था। पुलिसवाला भी मार रहा था पर कम। हम बीच बचाव करने लगे। तब जाकर मामला शांत हुआ। लेकिन पुलिसवाले पर हाथ उठाना तो अपराध है। पुलिस की वर्दी पहनकर दलाली करना भी तो गुनाह है, अपराध है। उस हवलदार के साथ आए ऑफिसर ने जेल में बंद करने की धमकी दी। मैंने उस ऑफिसर से एक बात पूछी कि यदि यहां खाना-पीना मना है तो ये बंद क्यों नहीं होते? उसने मेरा परिचय पूछा, मैंने बताया तो उस ने सब को इशारे से जाने के लिए कह दिया। फिर मेरे से मुखातिब होकर कहने लगा कि आप यहां क्यों आते हो, जब सूफी हो तो कहीं और भी तो खाना खाया जा सकता है। मैंने कहा कि घर के रास्ते में था इसलिए रुक गया पर उसका इशारा समझ वहां से रुखसत हो लिया।
अगली बार जाने पर पता चला कि उस रात वो एटा वाला आदमी तभी चला गया था। पुलिस ने यहां पर तो कुछ नहीं कहा था, आगे कोई नहीं जानता। पूरे समय पुलिस मौजूद रही और रात भर के लिए सभी ढाबे और स्टॉल बंद करवा दिए गए। जो हवलदार पिटा था वो उसी जगह पर बैठकर दारू पी रहा था, जहां पर उसने उस आदमी को मारा था और सारी रात बड़बड़ाता रहा।

जारी है...
(अगली बार ज्यादा पीने के बाद नौटंकी करने वालों पर)

आपका अपना
नीतीश राज