Wednesday, October 15, 2008

वो तीन बदनसीब

जब हवा चलती है तो हमारे देश की रेत राजस्थान के रास्ते दूसरे देश की सीमा में समा जाती है। इसी तरह ही कुछ सिरफिरे नौजवान सेना के जवानों को चकमा देकर एक देश की सीमा से दूसरे देश की सीमा में शामिल हो जाते हैं। पुलिस, सरकारें और सेना के जवानों की आंख में धूल झौंककर कुछ जुनूनी क़ातिल हैं जो सरहद पार से आते हैं और अपने दुश्मन का सर काटकर अपने साथ ले जाते हैं और छोड़ जाते हैं तो सिर्फ तड़पता हुआ अपने दुश्मन का धड़।
तीन बदनसीब इंसान जिनका जिक्र राजस्थान में आज भी किया जाता है। ठीक उस रेगिस्तानी डाकू कर्ना भील की तरह जिसको रॉबिन हुड की पदवी और उसकी मूंछ के कारण तो याद किया ही जाता है पर सबसे ज्यादा याद किया जाता है उसकी कब्र को जो कि एक शमशान में १७ साल से इंतजार कर रही है चिता का। ठीक कर्ना भील की तरह ही दुश्मन इन तीन बदनसीबों का सर काटकर, अपने साथ सरहद पार लेगए थे और दे गए थे जख्म, इंतजार का, उस परिवार को अपनी दुश्मनी याद रखने का और जिंदगी पर तड़पने का।
राजस्थान के पश्चिमी जैसलमेर के बीदा गांव में कुछ ऐसा ही वाक्या हुआ। दो नौजवान खेमर सिंह, खुमान सिंह गांव से अपने साथ कुछ भेड़ों को लेकर सरहद पर चराने के लिए गए थे। साथ ही उनके था १२ साल का जुगत सिंह। अमूमन तो ये लोग दो तीन दिन बाद ही सरहद से भेड चरा कर लौटते थे। जब इस बार चार-पांच दिन बाद भी ये नहीं लौटे तो गांव वाले पुलिस के साथ उनको ढूंढते हुए सरहप पर पहुंचे। काफी ढूंढने के बाद तीन शव मिले लेकिन तीनों के सर गायब थे। कपड़े और कद काठी से पता चल गया कि ये खेमर, खुमान और जगत की लाशें हैं।
तफ्तीश से पता चला कि इस परिवार की पुरानी रंजिश पाकिस्तान के कुछ लोगों से थी। मौका पाकर उन्होंने पाकिस्तान से आकर इन तीनों का सर कलम कर दिया और साथ ही सर भी अपने साथ लेगए। एक ही परिवार के तीन लोगों के धड़ जैसलमेर से सटी भारत की सीमा पर पड़े मिले। उनके दुश्मन उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए थे। पहले सरहदों पर तार यानी सीमा पर कटीले तार नहीं हुआ करते थे, तो ये लोग सरहद पार आसानी से चले जाया करते थे। ऊंटों में सवार ये अपराधी जैसे आए थे वैसे ही वापस चले गए और पीछे छोड़ गए सिर्फ दो शब्द “चांद मुजरा”
बीदा गांव के लोगों ने आधे-अधूरे शरीर को चिता पर लिटा तो दिया पर रस्मों के हिसाब से वो उस चिता में अग्नि नहीं दे सकते थे। मुख ना होने के कारण मुखाग्नि कोई कैसे देता। तो गांव वालों ने तीन पुतलों के सर रखकर अपने आप को बहला लिया। लेकिन ये टीस उनको सालने लगी।
गांव वालों के गुस्से को देखते हुए पुलिस ने क़ातिलों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की मगर सरहद पार से कातिल को पकड़ कर लाना दो थानों की बात नहीं थी, ये दो मुल्कों की बात थी। सो ना क़ातिल पकड़ा जाना था और ना ही क़ातिल पकड़ा गया। मालूम नहीं इन सरहदों के बीच ये सर और सरहद का रिश्ता क्यों है।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, October 2, 2008

"17 साल से शमशान में एक कब्र, इंतजार चिता का"

दुश्मनी, सर और सरहद भाग-2
अब तक कर्ना भील 70 के दशक में रेगिस्तान का सबसे ख़तरनाक लुटेरा सरकार की कोशिशों के चलते उसने सरेंडर कर दिया। बदले में सरकार ने कर्ना को जैसलमेर में ही एक जमीन का टुकड़ा रहने के लिए दिया। लेकिन एक दिन जमीन के झगड़े में इल्यास नाम के एक पड़ोसी का क़त्ल हो गया। क़त्ल के बाद कर्ना को पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया। पर इल्यास का परिवार तो खून के बदले खून की मांग कर रहा था। वो उसको जेल भेजे जाने से ही खुश नहीं थे। वो कर्ना से एक भयानक बदला लेना चाहते थे। इस बदले के लिए इल्यास के परिवार वालों ने बकायदा एक कसम भी खाई। कसम भी कोई ऐसी-वैसी नहीं। खून के बदले खून की क़सम। कर्ना का सर काटकर पाकिस्तान की एक दरगाह पर चढ़ाने की कसम। हत्यारों ने लगभग 17 साल तक का इंतजार किया और फिर जिस रोज उन हत्यारों को मौका मिला उन्होंने अपनी कसम को पूरा करने की ठान ली।
अच्छे चाल चलन के कारण पैरुल पर कर्ना को छोड़ दिया गया। एक रोज कर्ना राम अपनी ऊंट गाड़ी पर चारा लेने बाजार जा रहा था। रास्ते में घात लगाए इल्यास के रिश्तेदारों ने कर्ना राम से लिफ्ट मांगी, कर्ना राम उन्हें नहीं पहचानता था, लिहाजा उसने गाड़ी में उन्हें बिठा लिया। इसके बाद रास्ते में मौका मिलते ही उन्होंने कर्ना का सर धड़ से अलग कर दिया। सर हाथों में लिए रेगिस्तान के रास्ते वे पाकिस्तान भाग गए। वो दिन है और आज का दिन कर्ना राम का सर कभी नहीं मिला। हालांकि ये खबर जरूर आई कि कातिलों ने उसका सर लाहौर में एक दरगाह पर चढ़ा दिया। चाहे कुछ हो पर सरकार ने कर्ना के सर पर बाकायदा इनाम भी रखा हुआ था लेकिन उसी सर का इंतजार पिछले 17 साल से आज भी जैसलमेर के शमशान में पड़ा उसका शरीर कर रहा है और उसका सर पिछले 17 सालों से सरहद पार पाकिस्तान में किसी की कसम पूरी कर रहा है।
यहां कर्ना राम का परिवार पुलिस और प्रशासन से कर्ना भील के सर को वापस लाने की मांग कर रहा है। जबकि वहीं सर लाने की बात तो दूर पुलिस तो क़ातिल तक का सुराग नहीं लगा पाई है। 17 साल का समय बहुत होता है परिवार खुद लाहौर जा कर वो सर वापस लाना चाहता है इसलिए उसने प्रशासन से पाकिस्तान जाने की इज्जात मांगी है। 17 साल का अर्सा बेहद लंबा होता है। अगर अब कातिल का पता भी चल जाए तो भी कर्ना के परिवार वालों को उनके मुखिया का सर मिलना मुश्किल है। अब सवाल जो उठता है कि कब तक वो शमशान अपने में एक कब्र को बनाए रखेगा? तो क्या कर्ना हमेशा इसी तरह शमशान में चिता के बेहद करीब होते हुए भी चिता से दूर कब्र में लेटा रहेगा? इनके जवाब अभी अधूरे और बाकी हैं।

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, September 30, 2008

दुश्मनी, सर और सरहद भाग-१

लोग दोस्ती दिल से करते हैं, ये तो आप ने कई बार सुना होगा और साथ ही देखा भी होगा। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दुश्मनी भी दिल से करते हैं। कुछ की दुश्मनी जुबान से नहीं काम से होती है। और जब वो दुश्मनी निभाने पर आते हैं तो सरहदें भी उनको रोक नहीं पाती हैं। तो आज बात उसी अनोखी दास्तान की जिसकी चिंगारी उठी तो हिंदुस्तान से पर खत्म हुई पाकिस्तान में पर लौ अभी तक जल रही हैं अपने अंजाम तक पहुंचने के लिए।
बात उस डाकू कि वो जब ज़िंदा था तब भी मशहूर था लेकिन मरने के बाद उसकी दास्तान उसकी जिंदगी से ज्यादा मशहूर हुई। उसकी मौत उसकी जिंदगी पर भारी होगई। हिंदुस्तान का वो डाकू जिसने थार की रेतीली ज़मीन पर 70 के दशक में ख़ौफ़ की इबारत लिखी, आज भी इस इलाके का बच्चा-बच्चा उस डाकू को जानता है। उस डाकू का नाम कर्नाराम भील है। कर्ना भील का नाम जुबान पर आजाने से ही राजस्थान की रेगिस्तान की उड़ती रेत अपना रुख बदल लेती थी।
डाकू कर्ना जब तक ज़िंदा रहा तब तक उसको हाथ लगाने वाला भी कोई नहीं था और मरने के बाद भी उसके शरीर को कोईं हाथ नहीं लगा पा रहा है। कर्ना का नसीब तो देखिए आज भी उसका बेजान शरीर अंतिम संस्कार की राह तक रहा है। उस की चिता को अग्नि देने वाला कोई नहीं ऐसा भी नहीं है। भरा पूरा परिवार है उसका, लेकिन वो मुखाग्नि दें किसको क्योंकि दुश्मन उसका सर काट कर अपने साथ सरहद पार ले गए हैं।
पिछले 17 सालों से अपने अंतिम संस्कार की राह तक रहा है डाकू कर्ना का शरीर। वो कोई कब्रिस्तान नहीं, शायद वो इक्लौता शमशान होगा जहां पर कब्र है और कोई मुर्दा, चार दीवारी में कैद, अंतिम संस्कार की राह तक रहा है। सितम तो देखिए कि वो चिता के इतने करीब होते हुए भी चिता से उतनी ही दूर है।
डाकू कर्ना राम भील, जिसको हिंदुस्तान का रॉबिनहुड भी कहा जाता है। कर्ना की कहानी भी कुछ रॉबिनहुड की तरह, जो मरने के बाद मशहूर हुआ ना कि जिंदा रहते हुए। जो भी जैसलमेर से गुजरता उस पर क़हर बनकर डाकू कर्ना और उनके साथी टूट पड़ते ख़ास कर अमीरों पर। कहते हैं कि अमीरों को लूटकर वो गरीबों में बांट दिया करता था इसलिए कुछ उसे रॉबिन हुड कहा करते थे। कर्ना भील अपनी लंबी मूछों की वजह से गिनीज बुक ऑफ रिकॉडर्स तक में अपना नाम दर्ज करवा चुका था। नट बाजा पर दिलकश संगीत बिखेरना भी उसकी शख्सियत में सुमार था।

जारी है....

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, September 26, 2008

कुर्बानी, 84 गांव और एक लड़की-भाग 2

अभी तक आप ने पढ़ा--
सालम सिंह की नजर इस कुलधरा गांव की एक सुंदर लड़की पर जा पड़ी। 50 साल के सालम सिंह को वो पसंद आ चुकी थी वो इतना उतावला हुआ कि सब भूल गया, बस वो हासिल करना चाहता था कुलधरा गांव की उस इज्जत को। किसी भी तरह से उस चाहिए तो वो सुंदरी अपने हरम में।
सालम सिंह ने अपना संदेशा उस परिवार तक पहुंचा दिया जिस घर की वो सुंदरी थी। सालम सिंह ने बस्ती के लोगों को पूर्णमासी की रात तक फैसला करने की मोहलत दी। इसी मोहलत के साथ साथ सालम सिंह की धमकी भी थी कि पूर्णमासी की अगली सुबह बस्ती पर धावा बोलकर लड़की को उठा के ले जाएगा। गांव वालों ने मोहलत पर कम और धमकी पर ज्यादा गौर किया। ये सब वो ब्राह्मण गांव के लोग सहन नहीं कर सके। सभी 84 गांवों ने मिलकर एक जगह पर बैठक की। एक ब्राह्मण की बेटी को उस अधेड़ दीवान के सुपुर्द करना उनकी गैरत के खिलाफ था। सभी 84 के 84 गांव के लोग कुलधरा में मंदिर के पास इक्टठा हो गए। ब्राह्मणों की पंचायत हुई, पंचायत में एक आवाज पर फैसला होगया। 84 गांव के हजारों लोगों की एक ही आवाज़। कुछ भी हो जाए अपनी बेटी को उस अधेड़ के सुपुर्द नहीं करेंगे। चाहे उसकी कितनी बड़ी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े।
फैसला हो चुका था। ब्राह्मण की लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए 84 के 84 गांव फौरन सुबह का इंतजार किए बगैर ही जैसलमेर की रियासत से कहीं दूर निकल जाएंगे। एक ही रात में भरा पूरा गांव खाली हो गया। पर वो अपना धर्म नहीं बेचेंगे, वो अपनी लड़की की इज्ज़त को नहीं बिकने देंगे। 84 के 84 गांव के लोग एक ही रात में जैसलमेर जिला छोड़कर कहीं दूर चले गए। मगर जाते जाते ये बस्ती वाले इन गांवों को ये श्राप भी दे गए कि दोबारा कभी इन घरों में कोई बस नहीं पाएगा। जो गए वो कभी यहां पर लौट कर नहीं आए।
वक्त गुजरने के साथ कुछ लोगों ने और सरकार की तरफ से भी इन उजड़ी बस्तियों को बसाने की कोशिश की गई मगर तमाम कोशिशें नाकामयाब ही रहीं, ये गांव कभी आबाद नहीं हो पाए। उनका दिया श्राप आज भी इन गांवों को बसने नहीं देता। जो भी यहां बसने के लिए गया पूरे के पूरे परिवार पर आफत ही टूट पड़ी। ऐसी विपत्ति आती की किसी की जान लेकर ही जाती। घर का कोई ना कोई मरता जरूर।
सरकार की ये कोशिश तो असफल रही पर सरकार ने दूसरी कोशिश जरूर शुरू कर दी है। इन तमाम गांवों की घेराबंदी कर दी गई है। सदर दरवाजे पर चौकीदार को बैठा दिया गया है। गांव तो ना आबाद हुआ और ना ही कभी आबाद होगा पर उजड़ने के बाद भी ये गांव पर्यटकों की जेबों से पैसे निकालकर सरकार की झोली जरूर भर रहा है। घर की बहू-बेटी की इज्ज़त की खातिर जो मिसाल इन पत्थरों में रहने वाले गांव वालों ने दी है उस की मिसाल कभी दूसरी मिल ही नहीं सकती। वो पत्थर जो बिखरा तो है पर टूटा अब भी नहीं।

आपका अपना
नीतीश राज

(अगली बार एक और ऐसी ही रोचक और सच्ची कहानी के साथ, पढ़ना जरूरी है)