Sunday, September 21, 2008

अपना एक अड्डा- अंतिम भाग

शायद किसी ने मेरे इस अड्डे के बारे में पुलिस को बता और पढ़ा दिया। पुलिस ने इस बार कुछ ज्यादा ही सख्ती दिखाते हुए यहां की जगह को खाली करा दिया। अब वहां पर ना तो कोई ढाबा, ना ही कहीं कोई ऑम्लेट वाला। मेरा जाना नहीं हो पाया काफी टाइम से पर आज मेरे मित्र ने फोन पर बताया। पर हां, खाना ना मिले, अंडे ना मिलें, नॉन वेज ना मिले पर पीने का सामान यहां अब भी पुलिस की नाक के नीचे मिलता है। बशर्ते की आप सामान लें और तुरंत यहां से बिना शोर मचाए निकल लें। अब यहां पर रातों में जाम नहीं छलकते पर छलकाने का इंतजाम अब भी बरकरार है। चलिए, आज बात करते हैं जब यहां पर जाम छलकते थे और लोगों के कदम बहकते थे।
“जहां चार यार मिल जाएं वहीं रात हो गुलजार जहां चार यार....” आनंद विहार के इस अड्डे पर रात घिरते ही यार पहुचंने लगते हैं। फिर तो सिलसिला शुरू होता बैठने का, पीने का, पिलाने का और बातें उड़ाने का। यहां पर जब भी आप आएंगे तो दो-चार लड़के भाग कर आप के पास मेन्यू लेकर पहुंच जाएंगे। ‘कौन सी चाहिए?’ कन्फूयज ना हों और इसका मतलब भी अन्यथा ना लें। ये पूछते हैं कि व्हिस्की, रम, बियर आदि क्या चाहिए।
मेरे ही सामने दो लड़के एक ही बैंच पर दोनों तरफ पैर करके आमने-सामने बैठे हुए हैं। साथ में पीने के लिए जो-जो सामान चाहिए वो सब बीच में रखा हुआ। एक कह रहा है कि, देख, तूने गलत किया, तेरे को ऐसे नहीं कहना चाहिए था। दूसरा, क्यों में हाथ का इशारा करता है। शायद ज्यादा हो जाने की वजह से ये क्यों जैसा फिसलू शब्द उसकी जुबान से फिसल रहा है। बॉस ने जो कह दिया वो सराखों पर, पता नहीं तेरे को क्या हुआ जो कर बैठा बहस। आज तो मैं पिला रहा हूं पर कल तू कहां से पिएगा। मतलब समझने में देर नहीं लगी कि पहले वाले की नौकरी जा चुकी है। गम गलत करने के लिए बेचारा जाम पे जाम लगाए जा रहा है। वैसे भी यदि इनक्रिमेंट हो गया होता तब खुशी में पीता और कुछ घटित नहीं होता तो इस गम में कि कुछ हुआ क्यों नहीं। पहले वाला दूसरे के कंधे पर सर रखकर रोने लगा और फिर दूसरे वाला उसे उठाकर के ले गया और कोने में उसको बैठा दिया। ज्यादा पीने की वजह से पहले वाले का हाल बेहाल होचुका था। मतलब समझ गए होंगे।
एक दिन तीन-चार लड़के पीने में लगे रहे फिर जब पैसे मांगे गए तो एक-दूसरे पर टालमटोल करने लगे। दुकानदार कभी किसी के पीछ भागे कभी किसी के। कुछ पहले के उधारी भी थे। मैं वहीं खाना खा रहा था, अपने ऑफिस के दो सहयोगियों के साथ । दुकानदार ने सब को अपने पास बुलाया और पैसे मांगे। उनमें से एक जिसको की पैसे देने थे वो तेज तेज चिलाकर बदतमीजी करने लगा। थोड़ी देर में ५-६ दुकानदार आए और उससे पैसे मांगे पर वो उनसे भी उलझ गया।मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी पिटाई नहीं देखी। एक अकेला लड़का और ८-१० दुकान के लड़के उस पर लात-घूंसों से दे दनादन। उसके जितने साथ में पीने वाले थे कोई भी आगे नहीं आया वो पिटता रहा। जब हमने बीच बचाव किया तब वो छूटा। और फिर उस दुकानदार के पास अपनी घड़ी-मोबाइल कस्टडी में रखकर, माफी मांग कर चला गया। मैंने सोचा कि यदि ये ही करना था तो पहले ही कर दिया होता। पिटाई हुई और इज्जत गई सो अलग।
वैसे तो, ऐसे बहुत से किस्से हैं यदि कहुं तो अगली पोस्ट के बाद तक भी सिलसिला चला जाएगा। तो इसलिए यहीं खत्म करते हैं, पर...हां, एक किस्सा और सुनाते हुए खत्म करूंगा।
दो बंदे खूब पी चुके थे। पीने के बाद खाने का ऑर्डर किया उन्होंने बड़ी मुश्किल से, और उतनी ही मुश्किल से वो बैंच पर बैठ पाए। हम लोग निकलने वाले थे लेकिन मैंने सब को रोक लिया। मुझे यहां पर एक किस्सा दिख रहा था। दोनों ऐसे बैठे थे कि हवा का एक झौंका उनको गिराने के लिए काफी था। खाना सामने लग गया तो थोड़ी दिक्कत के बाद रोटी तो तोड़ ली। हाथ लगातार हिल रहे थे। सब्जी लगाने के लिए दूसरे हाथ से पहले हाथ को पकड़ रहे थे। कैसे-कैसे करके तो सब्जी लगाई पर अब हाथ मुंह में जाने की बजाय दाएं-बाएं से निकल रहा था। बार-बार वो कोशिश करें और उतनी ही तेजी से कोशिश नाकाम हो रही थी। हम ये देख-देख कर पेट पकड़कर हंस रहे थे। उनके लिए तो ये एक जंग जैसा ही था पर हमने फिल्मों के अलावा ये सीन पहले कहीं नहीं देखा। हम हंसते हंसते वहां से निकल लिए। नहीं जानता कि वो खाना खा पाए भी या नहीं।
सच में पीने वालों की तो बात ही निराली होती है। कई शायरों,कवि को तो ये प्याला क्या से क्या बना गया पर कुछ के लिए तो ये.....महज एक प्याला ही रहा। हां, आनंद विहार का ये अड्डा याद तो बहुत ही रहेगा पर देखना अब ये है कि उनकी ये अमावस्या (बंद वाली बात) कब खत्म होती है।

आपका अपना
नीतीश राज

5 comments:

Udan Tashtari said...

मजा आया आपके अड्डे के बारे में पढ़कर!!

Anil Pusadkar said...

आनन्द आ गया। हमारा भी अड्डा है,सालो से चल रहा है,ठीक कोतवाली के सामने है।कभी फ़ुरसत मे लिखून्गा वहा के किस्से। आपको पढ कर ही आइडिया मिला है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया लिखा है।आनंद आ गया।

राज भाटिय़ा said...

मुझे तो वो ओटी काने वालो पर हंसी आ रही हे , बेचारे भुखे रहे होगे, बाकी ऎसे अड्डे तो चलते ही पुलिस ओर नेताओ की मिली भगत से ही हे.
धन्यवाद

रंजू भाटिया said...

उफ़ यह पीने वाले .कैसे खा पायेंगे रोटी के निवाले :) बढ़िया रही आपकी यह पोस्ट भी